Book Title: Jain Pooja Kavya Ek Chintan Author(s): Dayachandra Jain Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 4
________________ तत्त्व की स्वीकृति, प्रतिष्ठा और मान्यता है। यह अलग विषय है कि कोई निर्गुण उपासना को मानता है, तो कोई सगुण उपासना पद्धति को। कोई मूर्ति के माध्यम से भगवत्पूजन करता है तो कोई बिना मूर्ति के ही। कोई मन से, कोई वचन से और कोई शारीरिक क्रियाओं से पूजा उपासना करता है। कोई द्रव्य से पूजा करता है तो कोई दूसरा भाव-पूजा अंगीकार करता है। कोई सिद्धान्त की ही पूजा करता है तो अन्य मानवता का अर्चन करता है। निष्कर्ष यही है कि-पूजा या उपासना की मान्यता वैदिक और अवैदिक या ब्राह्मण और श्रमण-सभी दर्शनों में समान भाव से उपलब्ध होती है। वेदों में उपासना/भक्ति/पूजा तत्व विश्व के लिखित प्राचीनतम वाङ्मय में 'ऋग्वेद' सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ है। वेदों की संख्या चार है-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद। इन सभी में पूजा/उपासना तत्त्य विद्यमान है। 'श्रमण' दर्शनों के प्राचीनतम ग्रन्थों, षट्-खण्डागम, आचारांगसूत्र, सम्राट् खारवेल आदि के शिलालेखों और सुत्तपिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्म पिटक में भी पूजा, भक्ति, उपासना के प्रेरक प्रसंग अनेकशः उपलब्ध हैं। सांख्य दर्शन में दो तत्त्व प्रमुख हैं-(1) पुरुष (आत्मा), {2) प्रकृति । आत्मा स्वभावतः निर्विकार है, उसमें सत्त्व, रजोगुण, तमोगुण नहीं हैं। प्रकृति के विकार रूप बुद्धि आदि 25 तत्त्व उत्पन्न होते हैं। जिनमें इस विश्व की रचना होती है। प्रकृति के संसर्ग से आत्मा में विकार होता है। जब आत्मा में विवेक (भेद विज्ञान) होता है, तब आत्मा विशुद्ध हो जाता है। इस दर्शन में ईश्वर की मान्यता नहीं है किन्तु आत्मा ही ईश्वर माना गया है। आत्मा विवेक रूप पुरुषार्थ से प्रकृति से भिन्न शुद्ध हो जाता है। विवेक रूप उपासना (भक्ति) से ही आत्मा शुद्ध परमात्मा हो जाता है यही आत्मा की मुक्ति है। शुद्ध आत्मस्वरूप का ध्यान करना ही इस दर्शन के अनुसार उपासना (पूजा) हैं। न्यायदर्शन में चार प्रमाणों के द्वारा 16 तत्त्वों की सिद्धि की गयी है। अतः यह कहा गया है कि तत्वज्ञान से दुःखों का अत्यन्त क्षय होता है। विश्व के जीवात्मा, शिव परमात्मा की उपासना करके शुद्ध होते हुए परमात्मा में विलीन हो जाते हैं। वैशेषिक दर्शन में मूलतः 7 पदार्थ माने गये हैं। उन पदार्थों के तत्त्व ज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है। तत्त्वज्ञानपूर्वक शिव ईश्वर की भक्ति करने से मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है। इस कारण इस दर्शन में उपासना या भक्ति सिद्ध होती है। गौमांसादर्शन की दो परम्पराएँ हैं-(1; ब्रह्मवादी, (2) कर्मवादी। ब्रह्मवादी सम्प्रदाय एक ही परब्रह्म (ब्रह्माद्वैत) की उपासना करता है और संसारी आत्मा का परब्रह्म की आत्मा में विलीन होने की मुक्ति मान्य करता है। प्राक्कथन ::Page Navigation
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