Book Title: Jain Padarth Vigyan me Pudgal
Author(s): Mohanlal Banthia
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 9
________________ भूमिका जैन दर्शन में पट् द्रव्य कहे गये है-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, काल और जीवास्तिकाय । द्रव्य का अर्थ है 'सत्' वस्तु अर्थात् वह वस्तु जिसमें अवस्थान्तर भले ही हो पर जो मूलत कभी विनाश को प्राप्त नहीं होती। इन द्रव्यो का अस्तित्व तीनो काल में होता है। अस्तित्व का अर्थ है अपने स्वभाव व व्यक्तिगत गुण के साथ हमेशा विद्यमान रहना । लोक इन्ही छ द्रव्यो से निष्पन्न माना जाता है। वह पट् द्रव्यात्मक कहा गया है। लोक की सीमा के बाहर अलोक है। वहां केवल आकाशास्तिकाय है, अन्य द्रव्य नहीं। धर्मास्तिकाय, अवर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय सख्या में एक-एक है। पुद्गलास्तिकाय, काल और जीवास्तिकाय अनन्त है। उपर्युक्त द्रव्यो में प्रथम पांच अजीव है। उनमें चैतन्य नहीं होता। जीवास्तिकाय चैतन्य द्रव्य है। उसमे ज्ञान, दर्शन होता है। पाँच अचैतन्य द्रव्यो में पुद्गलास्तिकाय रुपी है। उसके वर्ण, गध, रस और स्पर्श होते है, अत वह रूपी है-इन्द्रिय-ग्राह्य है। अवशेप अचैतन्य द्रव्य अरुपी है। वे इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं । जीवास्तिकाय भी अरूपी है। पुद्गलास्तिकाय की रचना अन्य द्रव्यो से भिन्न है। पुद्गल का सूक्ष्म से सूक्ष्म टुकडा, जिमका और खण्ड नहीं हो सकता, जो

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