Book Title: Jain Padarth Vigyan me Pudgal
Author(s): Mohanlal Banthia
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 48
________________ ३० जैन पादार्य-विज्ञान में पुद्गल है। एक अवस्था (पर्याय) को छोडकर दूसरी अवस्था (पर्याय) को प्राप्त करने को परिणमन कहते है। कोई द्रव्य न तो सर्वथा नित्य है, न सर्वथा विनाशी है, इसलिए प्रत्येक द्रव्य का परिणाम स्वीकार करना इप्ट है। पातजलयोग के टीकाकार व्यास ने भी कहा है --"अवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्व धर्म निवृतीधर्मान्तरोत्पत्ति परिणाम "-अवस्थित द्रव्य के प्रथम धर्म के नाश होने पर दूसरे धर्म की उत्पत्ति को परिणाम कहते है। द्रव्य की निज की जाति या निज के स्वभाव को छोडे विना प्रयोग या विस्रसा से उद्भावित विकार को परिणाम कहते हैं। परिणाम से क्रिया को अलग दिखाने के लिए-सिद्धसेन गणि ने-परिस्पन्दन इतर प्रयोगज पर्याय स्वभाव को परिणाम कहा है । 'तत्त्वार्थसूत्र' में द्रव्यो के निज-निज के स्वभाव में वर्तने को परिणाम कहा है। 'भगवती' मूत्र में पुद्गल के परिणाम पाँच तरह के बताये गये है। ---वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श तथा सस्थान, जो पुद्गल को रूपी बनाते है। - - १-परिणामोश्वस्थान्तर गमन न च सर्वथा ह्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाश परिणामस्तद्विदाभिष्ट । स्याद्वाद मजरी। २-द्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन प्रयोग विस्त्रसा लक्षणोविकार. परिणाम । -राजवातिकम् ५ २२ • १० ३-द्रव्यस्य स्वजात्यापरित्यागेन परिस्पदेतरप्रयोगजपर्याय स्वभाव. परिणाम । -तत्वार्थसूत्र अ५स २२ सिद्धिसेन गणि । ४-तद्भाव परिणाम ।-तत्त्वार्थसूत्र ५ ४२ ५-पचविहे पोग्गल परिणामे पण्णत्ते-तजहा-वन्न, गन्ध, रस, फास, संठाण परिणामे। ---भगवतीसूत्र श ८ उ १०

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