Book Title: Jain Padarth Vigyan me Pudgal
Author(s): Mohanlal Banthia
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 53
________________ दूसरा अव्याय: पुद्गल के लक्षणो का विश्लेषण ३५ अर्थात् ससारी जीव तथा पुद्गल परस्पर में घनिष्ट भाव से (अन्नमन्नवद्धा)वद्ध हैं, गाढतर भाव से (लोलीभावगता) बद्ध है, (अन्नमन्न पूछा) सर्व स्पृप्ट है, सर्वदेश में बद्ध (अन्नमन्न प्रोगाठा) हैं, स्नेह से प्रतिवद्ध (अन्नमन्न मिणेह पडिवद्धा) हैं तथा परस्पर में जीव तथा ग्रहीत पुद्गल समुदाय रूपमें रहते है (अन्नमन घडताए चिति)। पुद्गल जीव के द्वारा ग्रहीत होकर ही नहीं रह जाता है। ग्रहीत होकर वह जीव के साथ वन्व को प्राप्त होता है तथा परिणाम को प्राप्त होता है। जीव के साथ उसका यह वन्ध चार तरह का होता है प्रकृति वन्य, स्थिति वन्व, अनुभाव वन्य तथा प्रदेश वन्य । ग्रहण की हुई कार्मण-वर्गणामो में अपने-अपने योग्य स्वभाव या प्रकृति के पड़ने को प्रकृति वन्य कहते हैं। जिस कर्म-योग्य पुद्गल की जैमी प्रकृति, आवरण , इप्ट, अनिप्ट, अन्तराय आदि की प्रकृति होती है वह उसीके अनुसार प्रात्मा के गुणो की घात प्रादि रूप परिणमन किया करता है। एक समय में बंधनेवाले कर्म-योग्य पुद्गल आत्मा-जीव के साथ कवतक सम्बन्ध रखेंगे, ऐसे काल परिमाण को स्थिति कहते है । उन बँधनेवाले पुद्गलो में स्थिति बंध जाने को स्थिति बन्ध कहते हैं। वचने वाले कर्म-योग्य पुद्गलो में फल देने की शक्ति के तारतम्य के पड़ने को अनुभाव या अनुभाग वन्य कहते हैं। ववनेवाले कर्म-योग्य पुद्गलो की वर्गणाओं का जीवात्मा के प्रदेशो के साथ जो वन्ध होता है, उसे प्रदेश वन्य कहते है। यह जीवात्मा के प्रदेशो के साथ कर्मयोग्य पुद्गलो की वर्गणाओ

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