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जैन पदार्थ विज्ञान में पुद्गल
समय हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है ।
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(४) द्रव्य मे दो तरह का भाव बताया गया है - परिस्प न्दात्मक और अपरिस्पन्दात्मक' । धर्म, अधर्म तथा आकाश अपरिस्पन्दात्मक है । इनमे परिस्पन्दन करने की शक्ति बिल्कुल नही है । जीव स्वभाव से अपरिस्पन्दात्मक है लेकिन जीव मे परिस्पन्दन करने की शक्ति अन्तर्निहित होती है तथा पुद्गल के सयोग से— पोद्गलिक मन, वचन, काय इन तीनो योगो के निमित्त सेजीवात्मा के प्रदेश परिस्पन्दन करते हैं । पुद्गल अपरिस्पन्दात्मक तथा परिस्पन्दात्मक दोनो स्वभाव का कहा गया है । 'राजवातिक' में परिस्पन्दन को क्रिया तथा अपरिस्पन्दन को परिणाम कहा है । प्रवचनसार की प्रदीपिका वृति में परिस्पन्दन को क्रिया तथा परिणाम मात्र ( पर्याय परिणमन) को भाव कहा है ' । सिद्धसेनगणि ने परिणाम की व्यवस्था में 'परिस्पन्द इतर भाव को
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१ - द्रव्यस्य हि भावो द्विविध परिस्पदात्मक अपरिस्पदात्मकश्च । - राजवार्तिकम् ५ २२ २१ २ - निष्क्रियाणिच तानीति परिस्पंद विमुक्तित. ।
— तत्त्वार्यश्लोक वार्तिकम् ५ ७.२
३- योग आत्म प्रदेश परिस्पद । - राजवार्तिकम् २ २५ ५ ४ - परिस्पदात्मक कियेन्याख्याते, इतर परिणाम ।
— राजवातिकम् ५ . २२ २७
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५- परिणाम मात्र लक्षणोभाव परिस्पदन लक्षणा क्रिया ।
-प्रवचनसार २
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३७ को प्रदीपिका वृति ।