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में व्यंग्य ध्वंसात्मक न होकर निर्माणात्मक है। हरिभद्र की दस वैकालिक टीका में 30 महत्वपूर्ण प्राकृत कथायें और उपदेश पद में लगभग 70 प्राकृत कथाओं का उल्लेख है।
हरिभद्र के बाद प्राकृत कथा साहित्य अपनी समस्त पूर्व अर्जित क्षमताओं तत्वों और गुणों के साथ विकसित हुआ। इस काल में मुख्यत: चार श्रेणियों में प्राकृत कथायें लिखी गयी। मुख्यत: उपदेश, आख्यायिका, धार्मिक उपन्यास और चरित, चार श्रेणियों में लिखी गयी है। इन श्रेणियों की कथाओं के लिय स्थापत्य के विविध मानदण्ड एवं निश्चित रूप रेखायें स्थापित हुयी हैं। आलोचकों के अनुसार इस युग में मुख्यत: तत्व प्रधानता की पवृति दृष्टिगोचर होती है। उत्तर हरिभद्रयुगीन कथा साहित्य में व्रत और पूजा विधान की महत्ता द्योतक कथायें लिखी गयी, जिनका उद्देश्य जनता में व्रत और चरित्र का प्रसार करना था। हरिभद्र के शिष्य उद्योतन सूरि रचित कुवलयमाला इस युग की प्राकृत कथा साहित्य का महत्वपूर्ण कथा-कृति है। इसके अतिरिक्त चउप्पन्न-महापुरिस-चरियं, सुरसुन्दरी-चरियं, कथा कोशप्रकरण, निर्वाण लीलावती कथा, नागपंचमी कहा, महावीरचरियं, कुहारयणकोस आदि इस युग की महत्वपूर्ण कथा कृतियां है। इनमें से अधिकांश की मूल कृतियां विलुप्त है। इस प्रकार प्राकृत जैन कथा साहित्य आगमों से लेकर 16 वीं श. तक विकसित होता रहा है।
प्राकृत कथा साहित्य का काल और कथाओं के रूप प्राकृत कथा साहित्य का काल स्पष्ट रूप से पाँचवीं शताब्दी ईसवी से प्रारम्भ होकर 16-17वीं शताब्दी तक अस्तित्व में रहा है। इसमें कथा, उपकथा, अन्तर्कथा, दृष्टांत, आख्यान, आख्यायिका, उदाहरण आदि के भेद से कथाओं के विविध रूप प्रकट होते हैं। कथाओं को हृदय ग्राह्य और रूचिकर बनाने के लिये उनमें विभिन्न प्रकार के संवाद, बुद्धिमत्ता की परीक्षा उत्तर-प्रत्युत्तर हेलिका, प्रहेलिका, समस्या पूर्ति, सुभाषित, सूक्ति, कहावत तथा गीत, प्रगीत, विष्णु गीतिका, चर्चरी, गाथा, छंद आदि का उपयोग किया गया है।
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