Book Title: Jain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Author(s): Pushpa Tiwari
Publisher: Ilahabad University

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Page 11
________________ ने आचारांग और सूत्रकृतांग पर संस्कृत में टिकायें लिखी। वादिवेताल शान्तिसूरि, नेमिचन्द्रसूरि, मलयगिरि आदि आचार्यों को टीकाकारों में गिना जाता है, जिन्होंने प्राकृत भाषा में टीकायं की। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि आगम सिद्धांतों पर व्याख्यात्मक साहित्य का प्रचुरता से निर्माण हुआ जिसके फलस्वरूप एक अलग आगम कालीन साहित्य का निर्माण हुआ। आगमकालीन साहित्य ने अपने उत्तरकालीन साहित्य के निर्माण में योगदान दिया। इस योगदान के परिणामस्वरूप प्राकृत भाषा का चरित-साहित्य, धार्मिक साहित्य कथा-साहित्य उत्तरोत्तर विकसित होकर अधिकाधिक समृद्ध होता गया। जैन प्राकृत कथा साहित्य के आलोचकों एवं समीक्षको के अनुसार कथाकारों के चरित्र-सृष्टि की सजगता पूर्वहरिभद्रयुगीन कथाओं में स्पष्ट परिलक्षित होती है। इससे पहले की कथाओ के पात्रों के चरित्र का कथात्मक उत्कर्प, ही पाया जाता है। संभवत: इसका कारण इन पात्रों का समाज के विभिन्न क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करना है। चरित्र दृष्टि हरिभद्र के पूर्व कालीन कथाओं में नहीं है। चरित सृष्टि के लिये आवश्यक व्यापक आधार फलक पूर्वहरिभद्रकालीन तरंगवती (तरंगवईकहा) वसुदेवहिण्डी और पऊमचरिय कथा कृतियों में स्पष्टतः परिलक्षित होता है। वस्तुत: प्राकृत कथा-साहित्य में पौराणिक शैली से भिन्न आख्यायिका पद्धति पर किसी एक लोकप्रसिद्ध स्त्री अथवा पुरुप की जीवन घटना को केन्द्र मानकर काव्यमय शैली में श्रृंगार करुण आदि रसों से अलंकृत करते हुये वैराग्य उत्पन्न करने वाले कथा ग्रन्थ लिखे गये यद्यपि आख्यायिका शैली का सम्यक विकास हरिभद्र काल में ही पाया जाता है फिर भी तरंगवती कथा कृति इस शैली के सभी गुणों से परिपूर्ण हरिभद्रयुगीन प्राकृत कथा-विकास की दृष्टि से कथा-साहित्य का स्वर्ण युग है। इस काल में वस्तु और रूप या शिल्प का एकान्वयन स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। इस युग से पूर्व शिल्प कथाओं में बाहर से अरोपित प्रतीत होता था, परन्तु अब इन दोनों में तादात्म्य

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