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अन्य--हरिवंश में यदुकुल के शूर के पौत्र, समुद्रविजय, वसुदेव वादि के पिता, कृष्ण बीर अरिष्टनेमि के पितामह । [ उत्तरपु.]
अलम्बसेड-
बलदेव
१३९६ ई० के सिखरवसति के शि. ले. के अनुसार भ. महावीर के एक गव्यवर। [जैशि. - १०५]
अपराजित
मैसूर के जैन नगरसेठ वीरप्प का पुत्र और कुमार वीरप्प का पिता, ल० १५५० ई० [प्रमुख. ३२७]
नाडी का चौहान राजा, अश्वराज का पुत्र, ११६१ ई० में arte में जिनर्नय प्रतिष्ठा कराई और १९६२ ई० में नादरा में विशाल महावीर जिनालय बनवाया । [प्रमुख. २०८ ] १. म. महावीर की शिष्य परम्परा में छठे आचार्य, तृतीय भूतकेबलि (४३५-४१३ ई० पू.). [जैसो. २६२ ]
२. खंडेला के राजा प्रजा को जैनधर्म में दीक्षित करने वाले जिनसेनाचार्य के परम्परा गुरु. [ कंच. १०३ ]
अपराजितगुरु जो सेनसंघ के मल्लवादि के प्रशिष्य और सुमति-पूज्यपाद के शिष्य थे, और जिन्हें राष्ट्रकूट अमोषवर्ष प्र० के गुजरात के बायसराय कर्कराज सुवर्थवर्ष ने, ८२१ ई० के सूरत-ताम्रपत्र द्वारा नागसारिका के जिनमंदिर के लिये हिरण्ययोगा नामक क्षेत्र प्रदान किया था। [जैशिसं. iv. ५५ ] अपराजितरि-अपरनाम श्रीविजय, विजय या विजयाचार्य, यापनीय- नन्दिसंघ के आचार्य चन्द्रनंदि के प्रशिष्य और बलदेवसूरि के शिष्य थे । आचार्य श्रीiferut की प्रेरणा पर इन्होंने शिवार्यकृत भगवती आराधना (प्रथम द्वितीय शती ई०) की विजयोदया' नामक टीका की रचना की थी वो उक्त ग्रन्थ की सर्वप्राचीन उपलब्ध टीका है और उसका रचनाकाल ल. ७०० ई० है । उन्होंने वशवैकालिक सूत्र पर भी एक टीका लिखी थी । बारातीय सूरिचूडामणि नागनंदिगणी उनके विद्यागुरु थे । संघभेद के समय प्रारम्भ में यापनीय संघ दिन श्वे. उभय सम्प्रदायों को जोड़ने वाली कड़ी का कार्य करता था, किन्तु अपराजितसूरि के समय तक वह दिग. मूलसंघ के नन्दिनन में अन्तर्मुक्त हो चला था। [जैसो. १५३; विजयोदया टीका संयुक्त भगवती आराधना के प्रकाशित संस्करणों की प्रस्तावनाएं आदि ]
ऐतिहासिक व्यक्तिकोष
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