Book Title: Jain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Sanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha

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Page 10
________________ इस प्रकार संसार का व्यवहार चलाने के लिये भगवान वृषभदेव ने अपनी राज्यावस्था में वणों की स्थापना की । इस मिय तक जनता के मध्य कोई भी धर्म मर्यादा नहीं थी। क्यों धर्म का स्वरूप सर्व प्रथम इस युग में भगवान अपमदेव ही सर्वत्रता प्राप्त करने उपरान्त समभाया था। इस कारण नवों की स्थापना होने पश्चात् जब भगवान ऋषभदेव न होगये नर उन्दों ने सर्व प्रथम धर्म का व्याख्यान वस्तु गमप में किया। और यही व्यारयान जैनधर्म के नाम ले ग्यात हुआ। उस धर्म के मानने वाले जैनी कहलाए। जिनका 'चलमद आज जैन जाति के नाम से प्रकट है । भगवान के मय में प्रधानना जैनियों की थी। यद्यपि धर्म की अजानकारी ''जो बटुन से गजादि ऋपमदेव जी के साथ गृहत्याग कर संयम में लोन दुग थे यह नष्ट होकर श्रन्य मतों के रांचा. क हुए थे। उपराल में ऋषभदेव जी के पुत्र प्रथम लार्वभौम बादलपकती भरत ने, जिन के नाम की अपेक्षा यह देश कारतर्प कहलाता है, अण्यती पुग्यशाली उत्तम पाणको दान 'ना चाहा । सर्व वणों में से अपनी श्रावक दान ग्रहण करने ये। संभव है कि इनमें मुख्यता होन और मध्यम श्रेणी के 'नुष्यों की हो, क्योंकि सुख समृडदशा में अवस्थित व्रती नुष्यों को उसको ब्रह्म करने की इच्छा नहीं हो सकती। तपय जो श्रावक महाराज भरत जी के यहां दान ग्रहण रमे गये थे उनको धार्मिक प्रवृत्ति का ध्यान घरके स्वयं रतजी ने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की। यही वर्ण भगवान हरभटेव के कथनानुसार पंचम काल में अपने मूल धर्म-जैनधर्म का विरोधी हुआ। इस प्रकार हम इस युग में जैनधर्म की उत्पत्ति और जैन

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