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(३७) नवाँ कारण अतीवघणित शब्द व्यभिचार है। महा संयमी शोलवती भगवान महावीर की सन्तान प्राज व्यभिचारी है। यह कितनी नीचता की बात है । इस कलक को लिए हुए हम कभी भी उनकी सन्तान कहलानेके अधिकारी नहीं है ! भारत की अन्य समाजों की भांति जैन समाज में भी व्यभिचार का येशुमार प्रचार हो रहा है। "मात होता है कि शीलवत इस समाज से विदा ले चुका है और जैन धर्म का प्रभाव इसके हृदय से बिलकुल उठ गया है। यह समाज केवल ऊपर सेजैन धर्म का हा पहिने हुए है, जिसके भीतर इसका हृदय छिपा हुआ है। इसकी भीतरी हालत बड़ी ही गन्दी है। इस व्यभिचार के रोग में यहां के युवा ही प्रसित नहीं है, बालक और बूढ़े भी इसके पब्जे से बाहर नहीं है। यहाँ के वालक ७-- वर्ष के होते ही अश्लील शब्दों को सुन सुन कर उनके उच्चारण करने में पटु हो जाते हैं । पहिले तो वे उनका भाव समझे बिना ही उच्चारण करते रहते हैं, पोछे बारह तेरहवर्य केलगभग पहुंचने पर उन अश्लील शब्दों के द्वारा उत्पन्न हुएभावों को प्रयोग में लाने की चेष्टा करने लग जाते है। उनकी यह चेष्टा अनगमोडा, हस्त मैथुन आदि दुष्टदोपों के रूप में प्रकट होती है। व्यभिचार की यह पहिली सीढ़ी है। बाल्यावस्था में ये माय अनङ्ग मोड़ा आदि के रूप में और युवावस्था में परस्त्री सेवन, वेश्यागमन आदि के रूप में प्रकट होते है। जहां ये भाव हदय में अद्वित हो पाए फिर निकाले नहीं निकलते। ये उन्हें सदाके लिए व्यभिचारी बना देते हैं। त्रियां भी जय अपने पुरुषों को परस्त्रीगामी वा वेश्यागामी बना हुश्रा देखती हैं तो.घेभी अपने पातिवत्यसे शिथिल होने लगती है और अन्त में दुराचारिणी बन जाती हैं" ( जैन हितैषी भाग १३ पृष्ठ ४४८ )।