Book Title: Jain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Sanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha

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Page 54
________________ (४७) स्थापन होने का कहीं भी कोई उल्लेख शास्त्रों में देखने में नहीं आता। इसलिए यही सिद्ध होता है कि मुसलमानी समय के लगभग लोग अलग अलग टोलीयांध रहने लगे और वे अपने अन्य प्रान्तीय साधर्मी भाइयों के रीति रिवाजों और सम्पर्क से बञ्चित रहने के कारण उनको अपने से भिन्न समझने लगगए, जैसे कि हम प्रारम्भ में भी बतला आए है । यही यात युक्किसंगत है क्योंकि यदि जाति का आपसी भेद' प्राचीन काल से शास्त्रानुकूल होता तो आदि पुराण में उक्त प्रकार का भेद-लोपक विधान न होता। और जैन संहिताओं में शुढाओ से उत्पन्न पुत्रों का अलग अधिकार नहीं दिया होता। प्राचीन जैन लेखों से विविध जातियों की उत्पत्ति उक्त प्रकार हुई है, यह प्रमाणित है। (देखो "जैन लेख संग्रह" ) अतएव प्रकट है कि जाति भेद जैसा कि आज समाज में प्रचलित है शास्त्र सम्मत नहीं है। जिसके कारण विवाहक्षेत्र संकुचित हो रहा है और समाज की बड़ी हानि हो रही है। क्योंकि जैन समाज में ऐसी बहुतसी जातियां हैं जिनकी जन संख्या ५०० से भी कम है। यह अगले पृष्ठ पर दिये गये कोष्ठक से साफ प्रगट हैजो 'दि जैन डिरेक्टरी से उद्धत है:

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