Book Title: Jain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Sanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमः सिद्धेभ्यः जैन जाति का हास और उन्नति के उपाय ! लेखक:-- कामताप्रसाद जैन, उ० सं० "वीर" दातार:श्रीयुत बाबू शिवचरणलालजीजैन, रईस, जसन्वतनगर (इटावा) प्रकाशक:श्री संयुक्त प्रान्तीय दि. जैन सभा के प्रान्तीयदशा परिचायक मन्त्री मूल्य:"समाज-सुधार" Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा प्रयोजन पाठक वृन्द! इस जातीय चिठे रूपी पुस्तिका को आपके समक्ष रखन में मेरा प्रयोजन यही है कि समाज का आगल-वृद्ध अपनी वर्तमान शोचनीय दशासे परिचित हो और अपना एंव अपनी जातिका मुख उज्वल करने के लिये वास्तविक सुधार को सृष्टि दे। मुझे यह प्रकट करते हर्प है कि समाज को अपनी निर्जीव मतप्रायः दशा का ज्ञान हो चला है और वह उस पर गम्भीर विचार भी करने लगी है। श्री मारलवर्षीय दि० जैन परिषद ने सामाजिक हास के कारणों ओर उसके उपायों की खोज के लिये एक कमेटो नियुक्त की थी और उस.क.मेटी का सेम्बर होने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त था। मैंने उसी समय से इस विषय की गरेपणा करना प्रारमा करदी थी। इतने में अजमेर के श्री दि० जैन विद्यालय भण्डार ने भी इस विषय पर निबन्ध मेगाये। मैं परिपद के प्रस्तावानुसार जो लेख लिख रहा या उस ही को उक्त भण्डार की परीक्षक कमेटी के पास भेज दिया। प्रसन्नताकी वात है कि परीझक कमेटी ने उसे स्वीकृत और पुरस्कृत किया । आज वही निवन्ध इस पुस्तक-रुप में प्रकट हो रहा है। उधर श्री संयुक्त प्रान्तीय दि० जैन समा ने भी इस शन्त के जैनियों की दशा सुधारने के विचार से ऐसा ही प्रस्ताव स्वीकृत किया। एवं इस प्रान्त के जैनियों का परिचय प्राप्त करने के लिये मेरे प्रिय मित्र वाचू शिवचरणलाल जी को नियुक्त किया। सारांश यह कि अखिल भारतीय और प्रान्तीय Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) जैन संगठनों में समाज सुधार की चर्चा उठ खड़ी हुई। उस ही के अनुरूप मेरे उक्त प्रिय मित्र ने अपनी प्रदत्त रकम से इस पुस्तक को जैनजाति में विना मुल्य वितरण का आयोजन किया। उसी अनुरूप यह पुस्तक श्री संयुक्तप्रान्तीय दि० जैन सभा की ओर से प्रकट हो रही है। विश्वास है कि समाज के प्रमुख पुरुष और उत्साही नव-युवक इससे समुचित लाभ उठावेगे । एव अपनी सामाजिक दशा का परिचय प्राप्त कर उसको समुन्नत बनाने में अग्रसर होंगे। अव भी ढील की तो मरण सन्मुख ! खसकती कोर पर खड़े ही हो, जरा ठेस लगी कि अरर धम! इस दशा से वचो और जीवित जाति वनो। जिससे कोई आपके धर्म और आपकी समाज का अपमान न कर सके। विशेष किमधिकम् । रक्षावन्धन २४५१ ) -समाज हितैषी अलीगञ्ज (एटा) कामताप्रसाद जैन, Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ADDWORDPONRVADNNN मटर GRATISAR समर्पण बिरल श्रीयुत् बाबू शिवचरणलाल जी जैन रईस की सेवा में प्रिय शिव! श्रापका अनन्य प्रेम जिस विषय से है उस ही विषय की यह कृति आपके कर कमलों में सादर सप्रेम समर्पित है। मुझे विश्वास है कि आपका जातीय-प्रेमप्लवित है। हदय इस तुच्छ भेट' को स्वीकार कर जात्योत्थान के निमिस हम दोनों को उपर्युक्त कार्य करने के लिये। उत्साहित करेगा। वीर भगवान ! यह शक्ति प्रत्येक जैन । युवक के हृदय में व्याप्तहो, यही भावना है। एवं भवतु! आपका वही: के० पी०' Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनजाति के हास होने के कारण और उनके दूर करने के शास्त्र सम्मत उपाय ! "हम कौन थे क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी। आयो, विचार आज मिलकर ये समस्याएं सभी ॥" -भारत भारती ___"जैन जाति के हास होने के कारण और उनके दूर करने के शास्त्र सम्मन उपायों के विषय में लिखने के पहिले वैज्ञानिक अनुरूप में यह जान लेना आवश्यक है कि जैन जाति है क्या? वह कब से है ? और उसकी पूर्व में क्या दशा रही है। इन बातों के जाने बिना कोई भी व्यक्ति उसके हास के विषय में एक दम लेखनी को प्रवृत्त नहीं करेगा । अतएव जैन जाति के सम्बन्ध में उपरोक्त जटिल प्रश्न पर विचार करने के पहिले सामान्यता से उसका पूर्वदर्शन करना प्रासंगिक है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मजोकिएक वैज्ञानिक सर्वज्ञप्रणीतधर्म प्रमोणितहा है, उससे ज्ञात होता है कि इसी भारतवर्ष में एक समय वह । था जव यहां भोग भूमि अवस्थित थी, अर्थात् लोगों को अपने । जीवन निर्वाह के लिये प्रयत्न नहीं करने पड़ते थे और वेसुखी सुखी जीवन व्यतीत करते थे। इस समय किसी प्रकार के धर्म की भी व्यवस्था नहीं थी। जीयों की पुण्य प्रकृति क्षीण होने लगी और समय आगया कि उनका वह सुखमय जीवन नष्ट हो जाय । मनु वा कुलकर लोग अवतीर्ण हुए और वे मानवों को आवश्यकाओं की पूर्ति का मार्ग बताते गए।अन्ततःअन्तिम मनु नाभिराय और उनके पुत्र ऋषभदेव के समय पूर्णतया कर्म-युग का ज़माना गया था अर्थात् लोगों को विना उद्योग किये जीवन-निर्वाह करना कठिन होगया था। परन्तु जनता कर्मक्षेत्र के कर्तव्यों से अनमिक्ष थी। इसलिये विशिष्ट ज्ञानधारी राजकुमार ऋषभदेव ने उनको असि मसि आदि पटावश्यक जीवन कर्तव्यों का मार्ग सुझाया और मानवों को सुव्यवस्थित रखने के लिये उन्हों ने वर्णव्यवस्था स्थापित की, जिससे उनके लौकिक जीवन सुखमय व्यतीत होते रहें। आदिपुराण में वर्षों की उत्पत्ति के विषय में लिखा है कि जव भोगभूमि समाप्त हुई तब भगवान आदिनाथ ने प्रजाजनों को उनको भाजीविका के वास्ते असि, मसि, कपि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छः कर्म सिखाये । क्योंकि उस समय भगवान सरागी थे, वीतराग नही थे। उस ही समय भगवान ने तीन वर्ण प्रकट किये। जिन्हों ने हथियार वाँधकर रक्षा करने का कार्य लिया वे क्षत्री कहलाये, जो खेती व्यापार और पशु पालन करने लगे वे वैश्य हुए और सेवा करने वाले राष्ट्र कहलाये। (देखों पर्व १६ श्लोक १७६-१५) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार संसार का व्यवहार चलाने के लिये भगवान वृषभदेव ने अपनी राज्यावस्था में वणों की स्थापना की । इस मिय तक जनता के मध्य कोई भी धर्म मर्यादा नहीं थी। क्यों धर्म का स्वरूप सर्व प्रथम इस युग में भगवान अपमदेव ही सर्वत्रता प्राप्त करने उपरान्त समभाया था। इस कारण नवों की स्थापना होने पश्चात् जब भगवान ऋषभदेव न होगये नर उन्दों ने सर्व प्रथम धर्म का व्याख्यान वस्तु गमप में किया। और यही व्यारयान जैनधर्म के नाम ले ग्यात हुआ। उस धर्म के मानने वाले जैनी कहलाए। जिनका 'चलमद आज जैन जाति के नाम से प्रकट है । भगवान के मय में प्रधानना जैनियों की थी। यद्यपि धर्म की अजानकारी ''जो बटुन से गजादि ऋपमदेव जी के साथ गृहत्याग कर संयम में लोन दुग थे यह नष्ट होकर श्रन्य मतों के रांचा. क हुए थे। उपराल में ऋषभदेव जी के पुत्र प्रथम लार्वभौम बादलपकती भरत ने, जिन के नाम की अपेक्षा यह देश कारतर्प कहलाता है, अण्यती पुग्यशाली उत्तम पाणको दान 'ना चाहा । सर्व वणों में से अपनी श्रावक दान ग्रहण करने ये। संभव है कि इनमें मुख्यता होन और मध्यम श्रेणी के 'नुष्यों की हो, क्योंकि सुख समृडदशा में अवस्थित व्रती नुष्यों को उसको ब्रह्म करने की इच्छा नहीं हो सकती। तपय जो श्रावक महाराज भरत जी के यहां दान ग्रहण रमे गये थे उनको धार्मिक प्रवृत्ति का ध्यान घरके स्वयं रतजी ने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की। यही वर्ण भगवान हरभटेव के कथनानुसार पंचम काल में अपने मूल धर्म-जैनधर्म का विरोधी हुआ। इस प्रकार हम इस युग में जैनधर्म की उत्पत्ति और जैन Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाति का निकास होते देखते हैं। साथ ही मनुष्यों के मध्य वर्ण व्यनस्था की स्थापना का भी दिग्दर्शन करते है। इसके विपरीत अन्य प्रकार से द्रव्य के यथार्थ रूप की अपेना जैन जाति और जैनधर्म अनादि से हैं और अनादि काल तक रहेंगे अतएव इस अनादिनिधन जैनधर्म के विपय में किञ्चित यह भी देखना शेष है कि पूर्व में उसकी दशा क्या रही है? भगवान ऋषभदेव के उपरान्त एक दीर्घ समय के अन्तराल से विविध तीर्थंकर और अन्य महान पुल्य होते रहे हैं। यह सव जैनधर्मानुयायी थे। परन्तु भगवान शीतलनाथ जी के समय ब्राह्मणों में शिथिलाचार प्रवेश कर गया था और वे अपने इस आचार की पुष्टि में अनार्ष अन्यों की रचना भी करने लगे थे। और आश्रय प्राप्त करने को संरनकभी उन्होंने अवश्य पा तिये थे। पश्चात् भगवान मुनिसुवृतनाथ के समय में यज्ञादि का निरूपण करके यह ब्राह्मण लोग आप धर्म से। प्रतिकूल हो गए थे। यहीं से प्राचीन रीति रिवाजों में पूर्ण, अन्तर पड़ना प्रारम्भ हो गया था। पश्चात् दोनों धर्म प्रयक प्रथक होकर अपने २ मतों का प्रचार करते रहे थे। अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर जी के समय तो कितनेक धर्मपन्य प्रचलित थे। इस समरा इतिहास प्रसिद्ध श्रेणिक-विम्बसार, अजातशत्रु, जीवंधर, जितशत्र, शतनीक चण्डप्रद्योत आदि राजा लोग जैनधर्मानुयायी थे। इस समय में भी प्राचीन रीति रिवाजों में कम अन्तर पड़ा था। जीवंधर कुमार के वर्णन से तो विवाह क्षेत्र की विशालता देख, आश्चर्य करना पड़ता है। कुमार जिस समय श्रेष्ठि के यहां भरणपोपण पा रहे थे उस समय तक तो नहीं किन्तु उपरान्त में विदेश यात्रा कर पाने के वाद ही, उनको अपने क्षत्री- राज-पुत्र होने का परिचय Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) प्राप्त हुना था । (देखो नत्र चूडामणि काव्य)। परन्तु अपनो विदेश यात्रा से वे सर्व वणों की कन्याओं को उसी सॉति गृहण कर लाए थे जिस भांति चक्रवर्ती लोग सर्व चपों में से ही नहीं प्रत्युत म्लेच्छों में से भी कन्याय ले नाते थे। भान यह है कि शन्तिम तीर्थंकर के समय तक श्रोर उपरान्ततक प्राचीन रीति रिवाज चालू थे। परन्तु ज्यार विदेशियों के नाममण होते गए और लोगों को अपने जीवनों की रक्षा करना भी दूभर हुई त्यो २ वह उनसे दूर हटते गए। अन्त में एक समय ऐसा पाया कि प्राचीन रीति रिवाजों का लोगों को भान ही न रहा । और लोग जहाँ तहाँ टोली बाँध बांध अपने २ स्त्रीशन रिवाजों की रक्षा करते रहे। उन्हें अपने अन्य पड़ोसी साधर्मों भाइयों के व्यवहारों से परिचय ही न रहा । यह खास कर मुसलमानी समय में हुआ। और जहाँ २ मुसलमानों का आधिपत्य दीर्घ काल तक अच्छी तरह से रहा नहाँ २ प्राचीन रोति रिवाज विल्कुल ही लुप्त होगये। इस व्याख्या की पुष्टि में उत्तर और दक्षिण की जैन समाज के रीति रिवाज प्रत्यन प्रमाण है। दनिण में मुसलमानों की दस्तन्दाजी कम हुई। इसी कारण वहाँ शालों में वर्णितप्राचीन रिवाजाकी भलक मिलता है। अतः इस कथनसे यह प्रकटहै कि प्राचीन जैन रिवाजों में समयानुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के प्रभावानुसार परिवर्तन होते रहे है और उसमें प्रख्यात राजा महाराजा भी होते रहे है । सम्राट् चन्द्र गुप्त जैन थे। यह समय भारत के अधिपति थे। अतपच इनके समय में अवश्य ही जैनधर्म राष्ट्र धर्मरहारोगा।सम्राट अशोक, सम्प्रति, स्वारवेल, कुमारपाल, कुम्म, अमोघवर्प आदि नृप जैन ही थे। जैनियों में चामुण्डराय, असराज सदृश योद्धा थे। भामाशाह Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) सघश देशभक्त और तेजपाल वस्तुपाल सदृश दानी धावक थे। तथैव कुन्दकुन्दाचार्य और समन्तभद्राचार्य सदृश निग्रंथ महाविद्वान आचार्य थे। इन्होंने ही जैनधर्म को गौरव गरिमा को दिगन्त व्यापिनी बना दिया था । जिसको शाती आज भी उन के शिल्प के अद्भुत कार्य और अतुल साहित्यरत्न है । परन्तु दुःख है कि आज वह नररत्न जैनधर्म की प्रमाचना चढ़ानेको प्राप्त नहीं हैं। आज जनजाति जीवित जातियों में नहीं गिनी जाती। आज चारों ओर से अपमान २ की ही बौछारें उसके ऊपर पड़ रही है। वह प्रति वर्ष बड़े वेग के साथ घटती चली जाती है। इन सब हताश करने वाली बातो का उत्तर पानेके लिये हमको देखना चाहिये कि हमारे पूर्वजों में क्या गुण थे जो वे उतने उन्नत और सुख समृद्धशाली थे। हमारे पूर्वजों में पहिली बात तो यह थी कि उन में धर्म के चारों संघ-मुनि, आर्यिका, श्रागक, श्रानिका-गिद्यमान थे। इसलिए धर्म को पूर्ण उन्नति थी। और उसके महत्व एनं. कर्तव्यों को ला समझे हुए थे। मुनि ओर आर्यिका संघ के कारणं श्रावकों के जीवन धर्मनिष्ठ बने रहते थे। उनका धार्मिक शान उन महान आत्माओं के संसर्ग से सदैव उन्नत होता रहता था जिसके कारण उनको आत्माएँ वलवान रहतो थी और वे लौकिक एवं पारिलौकिक दोनों कार्यो को दृढ़ता के साथ कर सकते थे। उनकी ज्ञानवृद्धि और पुण्योपार्जन के साक्षात् कारण अनागोरगण विद्यमान थे। जिनका कि आज बिल्कुल अभाव ही है। भारत में धर्म ही सर्व उन्नतियों का मूल कारण माना गया है। तिसके प्रचार और संभाल के कारण उनमें मौजूद थे। अतएव सुखसमृद्धशाली दशा को माप करने के अन्य कारण भी अवश्य हो उनको उपलव्ध थे। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) लौकिक जीवन उन्नत बनाने के लिये सम्पत्ति मुख्य मानी गई है । सो जहाँ धर्म वहाँ यह अवश्य होना चाहिये । और वस्तुतः प्राचीन जैनजाति में यह थी ही । इस के विना संसार में गृहथों का कालक्षेप करना कठिन है । सम्पत्ति और मनुष्य में नि सम्बन्ध है । मनुष्य की उन्नतिव्यक्तिगत, सामाजिक या राष्ट्रीय-सम्पत्ति के उचित प्रयोग पर निर्धारित है, श्रीर साथ ही सम्पत्ति की उत्पत्ति मनुष्य की उत्तमता शारीरिक, मानसिक और चारित्रक ( Moral ) पर निर्भर है। जिसमें जितनी योग्यता है वह उतना ही सम्पत्तिमान् होता है । सुयोग्य अयोग्य से अधिक सम्पत्ति सञ्चय करके प्रति दिन उन्नत बनता जाता है । और अयोग्य सम्पत्ति हीन हो कर अवनति के गहरे गढ़ में गिर जाता है । सुयोग्य सम्पत्तिमान और श्रीमान बनता है । और योग्य क्षीण हीन होकर मर मिटता है। दूसरे शब्दों में यही बात यों कही जा सकती है. कि. श्रधिक सम्पत्तिमान अधिक सुयोग्य धन सकता है । सम्पतिमान जीना है और सम्पत्ति हीन की मृत्यु होती है । (देखो देश दर्शन पृष्ठ २ ) । हमारे पूर्वजों में साधु साध्वीयों की देखभाल मैं सम्पत्ति संचय करने की योग्यता प्राप्त थी और वह उनकी शिक्षा दीक्षा में उसका उचित प्रयोग भी करना जानते थे। यही कारण था कि उनके जीवन उन्नत थे । परन्तु श्राज इन सव वातका लोप है। वेताम्बर समाज में किंचित साधुर्थो कीदेख रेस श्रावकों पर है और उनमें सम्पत्ति भी अधिक है। योग्यता प्राप्त करने में पुण्यमय कारण का समागम विशेष सहायक है । " योग्य मनुष्य के खास गुणों पर विचार करने से कहना होगा कि पहिले तो उनका जीवन धर्ममय होना चाहिये, जिस सेमिक बल की वृद्धि हो और मानसिक एकाग्रता प्राप्त Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (7) 1 हो । फिर श्रात्मोन्नति के उपरान्त वृद्धि और शारीरिक बल चढ़े चढ़े होना चाहिए। जितनी बुद्धि विकास को प्राप्त होगी उतनी ही योग्यता मनुष्य प्राप्त कर सकता है । तथापि जितना ही शारीरिक वल मनुष्य का बढ़ा होगा उतना ही अधिक श्रम कर सकेगा । और जितना ही अधिक श्रम करेगा उतना हो अधिक धनोपार्जन कर सकता है और उसे उचित रीति से व्यय करके जीवन उन्नत बना सकता है । यद्यपि यह अवश्य है कि इन योग्यताओं की प्राप्ति में उस समय के देशके राज नियम और जाति के रीति रिवाज भी वाधक वा साधक होते हैं । इसलिए उन का भी समुचित होना आवश्यक है ।' श्रतपन कहना होगा कि “अन्य जातियों के सम्मुख जीवित रहने के लिये, संसार में अपना अस्तित्व रखने के लिये, मनुष्य में मनुष्य के गुण होने चाहिये । मूर्ख और बलहीन मनुष्य देश व जीति को लाभ पहुंचाने के बदले हानि पहुंचाते है श्रीद सुयोग्य बनने के लिये पैतृक ओर सामाजिक संरकार की शुद्धता, श्राचरण या चरित्र की पवित्रता, निर्मल जल, शुद्ध वायु, पुष्टिदायक भोजन, स्वच्छ हवादार मकान, इन्द्रिय निग्रह, स्वास्थ्य रक्षा और उत्तम चिकित्सा शास्त्र का ज्ञान, सर्व प्रकार की विद्या और सर्वोपरि वातन्त्रता की परम आवश्यक्ता है ।" (देखी देशदर्शन पृष्ठ ६-७ ) । हमारे पूर्वजों मैं यह सर्व गुण श्रवश्य ही थे। तब ही वह इतना उन्नत जीवन विता सके थे कि श्राज भी उनकी गुण गरिमा संसार के नेत्रों को धुंधिया रही है। किंतु क्या कारण कि हम उनकी संतान इन गुणों को खो बैठे है । और श्रवनत हेय-लजा मय जीवन व्यतीत कर रहे हैं ? सभव है कि मेरे कोई मित्र इस पर कहें कि अब ज़मानो Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह आता जारहा है कि सर्व वस्तुएँ हेय होकर हास को प्राप्त होतो जॉचगी। और अन्त में नष्ट हो जॉयगी यह स्वाभाविक अमिट वान है इस पर दुख किस बात का! संसार के और जन जाति के जो उदय में है वही होगा। उसके विपरीत हो नहीं समता! पुरपार्थ करने से कोई विधि की मेख को पलट नहीं सकता। इस व्याख्या के उत्तर में मैं अपने ऐसे मान्य मित्र से पूछेगा कि यह ज़माने का हास क्रम क्या केवल जैनियों के ही पल्ले पड़ा है ? क्या कारण है कि ईसाई, आदि विधी सर्व प्रमार की उन्नति कर रहे है और जैनधर्म इस गति से होन होता जारहा है कि कठिनता से पूरे २०० वर्ष तक वह अपना अस्तित्व ही स्थिर रख सके ? तिस पर जैन शास्त्रों में स्वयं कहा है कि पंचम काल के अन्ततक जैनधर्म रहेगा। यद्यपि जुगनू की मांति लुप्न और प्रकट होता रहेगा। इस अपेनाले भी जैनधर्म वा जाति का हास देवी नहीं माना जा सकता । और इस कारण उसके उद्धार केनिमित्त हाथ पर हाय धर कर भी नहीं बैठा जा सकता । जो सजन भवितव्य को सब कुछ समझ कर इस शोर पुरुषार्थ करना हेय बतलाते है वह अपने भनितव्यता के दृढ विश्वास में कभी भी अपने दैनिक जीवन को उसके प्राधीन नहीं छोड़ देते ! यही तर्क उनके विश्वास को लचर प्रमाणित करती है। बात यह है कि ऐसे सजन का और पुरुषार्थ के यथार्थ रूप और सम्बन्ध ले अनभिन्न है। जैनसिद्धान्त' की अपेक्षा कर्म दो प्रकार का रोला है-(३) इन्य (२) और भाव कर्म आत्मा के परिणामों का नाम भाव कम है। और वचन एवं काय की क्रिया का नाम दिया है। किन्तु यह वचन और काय की क्रिया मन के शुभाशुस विचारों के आधीन है। इसीलिये यह भी भार कर्म में Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DIRLIAMLwanrous. सम्मिलित है। और जैनधर्म का यह सिद्धान्त है कि समस्त लोकमें सूक्ष्म पुद्गल के परमाण भरे हुए हैं जिनमें यह विशेषता है कि वह भाव कर्म के प्रभाव से संसारी आत्मा की ओर खिंचते हैं और उससे बंध जाते हैं। और शुभाशुम भाव कर्म के अनुसार-उन परमाणओं में अपने समय पर आकर आत्मा को सुखदुख देने, औरआत्माकी अच्छी बुरी दशा करनेकी शक्ति उत्पन्न हो जाती है । श्रतएव आत्मा के साथ बंधे हुए इन सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं का नाम ही द्रव्य कर्म है। अब देखना चाहिये कि पुरुषार्थ किसको कहते हैं ? निश्चय में जो आत्मा कानिज शुद्ध स्वभाव अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य आदि है वह ही आत्मा का पुरुषार्थ है। और यही उत्कृष्ट है। परन्तु व्यवहार में आत्मा अपनीउन्नति,और अपनीसासारिक अवस्था अच्छी करने के लिये जो प्रयत्न करता है उसका नाम पुरुषार्थ है। और जव कि इन प्रयत्नों की जड़ भी रागपादि ही है तव वास्तव में संसारी आत्मा के शभाशुभ विचार अर्थात् भावकर्म ही पुरुषार्थ हैं। इसलिये जब कि- द्रव्य कर्म अर्थात् भवितव्य (तकदीर)-भाव कर्म अर्थात् पुरुषार्थ के अनुसार बंधती है यानी अच्छे विचार और अच्छे कर्म से अच्छी तकदीर बनती है। और बुरे विचार और बुरी क्रियायों से दुरी तकदीर बनती है।तब इस अपना कर कह सकते हैं कि तकदीर-पुरुषार्थ के आधीन है और पुरुषार्थ चड़ा है। परन्तु कुछ असावरों पर पूर्व संचित कर्म ऐसा प्रवल होता है कि वह उदय काल में मनुष्य के विचारों और क्रियायों पर अपना प्रभाव डाल कर उनको शुभप्रवृत्ति की ओर नहीं जाने देता। इस अपेक्षा से धर्म (भवितव्यता) को बड़ा कह सकते हैं: परन्तु ऐसी दशा में भी यदि मनुष्य प्रयत्न शुभ प्रवृत्ति की Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) ओर किये नायगा तो पिछले बुरे कर्म के मन्द होने पर अवश्य सफल मनोरय होगा। अतएव परुषार्थ करते रहने से यद्यपि किसी निश्चित समय में सफलता प्राप्त न हो परन्तु वह एक समय प्राप्त होतो अवश्य है। (देखो जैन कर्म फिलासफी) इसलिये पुरुषार्थ करना प्रत्येक दशा में आवश्यक है। पुरुषार्थ के बल हो तकदीर काअस्तित्व है। इस कारण भवितव्यता के भरोसे बैठना बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती है। अतएव जैन समाज का जो हास उसमें योग्य मनुष्य गुण न होनेके कारण हो रहा है उसके रोकने में अवश्य ही हमें पुरुषार्थ शील हो कटिबद्ध हो जाना चाहिये। तव ही वह पंचमकाल के अन्त तक जीवित रह राकती है। ओर अपनो प्राचीन गौरवगरिमा पुनः प्राप्त कर संसार को सुखशांति का संदेश सुना सकती है भवितव्यता का निराशाजनक ढकोसला उसके मग मे बावक नहीं होसकता। निरुत्साही निराशा के पंजे से प्रत्येक जैनी को उन्नति करने के लिये निकलना अत्यावश्यक है। अस्तु अव देखना है कि क्या कारण है जिनके वश जैनियों में मनुष्य गुणों का अभाव है ओर उनमें वह नर रत्न नहीं है जो उनके सामा. जिक जीवन को उन्नत बनाने में सहायक होते ? आज जैन समाज को दशा पर ए डालते ही आँखों अगाडी अँधेरा छा जाता है। उसकी जनसंख्या और उसके निछानों को गणना करते हो हृदय र जाता है। विस्मय होता है कि किस तरह जैनधर्म प्राचीन काल में भारत का राष्ट्र धर्म रह चुका है। श्राज तो वह नाम मात्र को अवशेष है। न उसके अनुयायियों में आज कोई राजा है,न सैनिक है, और न सेनापति । न पेले ही कार्यपटु निद्वान है जो गज Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) व्यवस्था में उच्च भाग लिये हो और उसके स्वान्वोंकीरता कर सकते हो। अथवा उनकी धाक-सभ्य संसार में जमी हो । नशिल्प और न वाणिज्य में ही उनकी प्रधानता है । सारांश में बह सव-तरह से हीन हो रही है और शारीरिक मानसिक एवं चारित्रक मनुष्य गुणों में करीव २ दिवाला निकाले ही बैठी हुई हैं। यही कारण है कि प्रति दश साल में पौन लास के करीब घट जाती है। तिस पर भी तुर्रा यह है कि उस में परस्पर मान सद के घोड़ों पर चढ़ व घुड दौड़ हुआ करती है। इसकी ऐसी दशा हो रही है कि यदि यह इस ही रूप में वनो रहो तो सौ दो सौ वर्ष में लोक से इसका अस्तित्व हो लुप्त हो जायगा। इसको जन सख्या किरा जी के साथ घट रही है यह जरा देखिये: , सन् १८४१ में वह कुत १४,९६,६३८ थी। . . सन् १९०१५. " १३,३८,१४०. " सन् १८११”, ''. १२,४८,१८२ " और सन् १९२१ में मात्र ११,७८००० रह गई है। इससे प्रकट है कि तीस वर्प में जैनियों की संख्या,दो लाख चालोस हजार घट गई है। जब कि भारतवर्ष की जन संख्यातीसवर्ष में सत्ताईस करोड़से बढ़ करवत्तोलकरोडो गई है। इस ज़माने में अन्यधोने उन्नतिको, पर जैनोघागर । यह जटिल प्रश्न उनके जीवन मरण का प्रश्न है। क्या कारण है कि अन्य भारतवासियों के साथ हो साथ उनकी संख्या भी नहीं बढ़ी जब कि हम देखते है कि अन्यों की संख्या वरादर बढ़ती रही है। जैसे कि भारत Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M OR ma + ६३३ ।' की संख्या के उक्त अंको से और अन्य धर्मों के निम्न कोष्ठक से विदित है: सन् १८४१ से १९०१ को सन् १९०१ से १९११ तक धर्म । जनसंख्या में प्रतिरात | जनसरया में प्रतिशत घटना या बढ़ना। घटना तया बढना । बौद्ध + ३२६ बढ़ना १३१. वना ईसाई } + २८ ५ +३२६ ". सिख १५ मु०मा० +8 *६७ " . हिन्दू । -३ घटना + १५.०४ " जैनी - ५२ " -६४ घटना इस कोष्टक से साफमकर है कि १६०१ ६० ले १६११० तक के दस वर्षों में कुल भारतवालो११८ प्रति सैकडार कुल हिन्दू १५.०४ प्रति लैकडा बढ़े, परन्तु अभागे जैनो ६४ प्रति सैकड़ा कम हुए। जैनी भी अन्य भारतीयों को भांति बढ़ने चाहिये थे परन्तु उनको उल्टो वास्तविक घटी १८३ प्रति सैकड़ा हुई है। हमारी यह दशा हमारे कान खड़े कर देने के लिये पर्याप्त है किन्तु दुःख है कि अब भी हम इस ओर से अचेत पड़े है। और पुराने ढर में पड़े हुए इसी तरह पिस, जाना पसन्द कर रहे हैं । हमे मालूम है कि हमारे शरीर में धुन-लग रहा है और वह बहुत तेजी के साथ हमारे जीवन का अव कर रहा है परन्तु तो भी हम उस धुन को निकालने के लिये करिबद्ध नहीं है। मोइयो याद रखिये कोई जाती कितनाही बडो-करोडो को संख्या की क्यों न हो, वह भीइल वेढनी रकार से एक दिन नष्ट हो जावेगी। कदापि जीवित नही रह सकती। तिस पर Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रापको संख्या तो उगलियों पर गिनने योग्य है। इसलिये मृत्यु के मुख से बचना है तो आलस्य को छोड़िये, जड़ता को त्यागिये, हियेकी खोलिये और अपनेधर्म-धर्मको पहिचानिये। बहुत सो चुके, ज़माना बदल गया, शरीर में धुन लग गया, मरणासन्न हो गए! श्रव भी चेत जाइये और इन अगाड़ी बतलाए हुए कारणों को शीघ्र ही दूर कर दीजिए। जग गोर, कर देखिए कि वह किस भयानक रीति से आपके जीवन तन्तुओं को भक्षण कर रहे हैं! जैनसमाज के द्वास के कारण एक नहीं, दो नही, किन्तु अगणित हो रहे हैं । इसलिये प्रत्येक मनुष्य उनका दिग्दर्शन करा भी नहीं सकता। उनका पूर्ण दिग्दर्शन तो प्रत्येक जैनो भाई एकान्त में बैठ कर निश्चल हृदय से स्थानीय दशा का अवलोकन कर अनुभव कर सकते हैं । यह रोग अाजका नहींकल का नहीं, प्रत्युत एक दीर्घ काल से समाज के मध्य घुसा है। यह राज्यरोग है। इसको परीक्षा और उपचार सुयोग्य अनुभवी वैद्यों के वश है। परन्तु समाज की दशा से परिचित ओर दुखित नवीन ह्रदय भी अवश्य ही इस ओर प्रकाश डाल 'सकते हैं। अतएव कहना होगा कि यद्यपि जैन समाज भारत के विविध प्रा.तो में वसा हुआ है, इस कारण प्रान्त भेद से उनके रोतिरिवाजों में भी अवश्य अन्तर पड़ा हुआ है। किन्तु उनके ह्रास के कारणों में अधिक अन्तर नहीं है। यह प्राय ऐकही से हैं तो भी यह सभव है कि एक प्रान्त में एक खास कारण से जैनियों का हास हुआ हो तो दूसरे प्राप्त में उसके विपरीत किसी अन्य कारण से वही नौवत मसीव हुई हो। इसलिये समग्र जैनसमाज के हास के कारण साधारणतः एक समानही होना सभवित होते है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) यह तो प्रकट हो है कि जैरजाति जीवित, नोरोग ओर धनवान जाति नहीं है क्योंकि सम्पत्ति शास्त्र के बेत्ताओं का कथन है कि ऐसो सर्भसम्पन्न जाति २५ वर्ष में दुगुसी हो जानी है। मादयस साहब ने सप्रमाण सिद्ध किया है कि यदि खाने पोने की सुविधा हो तो हर देश की जनसंख्या हर पचीसवे साल दुनो होजाती है । परन्तु जैनसमाज इस स्वाभाविक वृद्धि को उपेक्षा करके उल्टो घटी ही है; इससे प्रमाणित होता है कि उसके काम के कारण उसके सामाजिक जीवन में ही विद्यमान है । श्रतएव इन कारणों को वहीं ढूंढना और प्रकट करना Tags है, वही उनके दूर करने के उपाय सोचे जा सकते है। विचार करने से कहना होगा कि जैनसमाज के नाश होने के मुख्य कारण निम्न प्रकार हैं: १ श्रनागारसंव- साधु महात्माओं का लोप, जैसे कि पहिले देख श्राप है । २ योग्य मनुभ्य गुणों का अभाव जिसका कारण शेष बातें हैं । ३ देवो कोप ( प्लेगादि रोग ) 2 निर्धनता वा दरिद्रता । ! पास्थ्य ओर उच्चशिक्षा की ओर से उदासीनता । ६ यान्य विवाह । ७ वृद्ध विवाह । ८ अनमेल विवाह । ६ व्यभिचार । १० पुरुषों का अविवाहित रह जाना । ११ छोटी २ जातियों का होना और अपनी जाति के यतिरिक्त अन्य जाति में विवाह न करना । 1 1 1 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) १२ विवाह में बाधक अन्य कारण एवं आपसी विरोध १३ सियों को उचित देखभाल और सम्मान न करना। १४ मांगो को छोड़ कर शहरों में रहना, और १५. निजधर्म से अभिज्ञ होने के कारण नार्यसमाजी या हिन्दू आदि विधों हो जाना और अन्यों को जैनो न बनाना। पहिते कारण साधु-साध्यो के भाव में जो सनि समाज को हो रही है उसका दिग्दर्शन हम पहिले करा चुके है। वरतुतः जैन समाज की उन्नति को जड़ इस मूल कारण को दूर कर देने में है। और यह दूर तयही हो सकता है जब समा.. ज के अनुभवी विचारवान पुरुप धर्म के मूलभाव को समझ कर त्याग के महत्व को समझ। और अपने जीवन से इस बात का उदाहरण उपस्थित करद कि प्राचीन काल की भांति आज भी जैनी गृहस्थ सुलताभ करके परभव सुधारने के लिये सयम का पालन कर सकते हैं। वर्तमान में जो कुछ भी ऐसे सयमो पुरुष है उनका प्रयम कर्तव्य है कि वह अपनी आत्मोन्नति करने के साथ ही साथ पंचायुक्तों का प्रचार समाज में करे और त्याग भाद के महत्व को समाज के अधिक्क्यी पुरुषों को समझा कर उन्हें इस संयम मार्ग पर लेनावें । ऐले संयमी पुरुष यदि प्रत्येक प्रान्त में प्राधी २ दर्जन भी हो जाये तो जैन धर्म के यथार्थ भान को जैनी समसजावे और उसका पालन वे लोक पीटने की भॉति न करें। प्रत्युत उसको अच्छी तरह समझ कर वे अपने जीवन धर्ममय बनालें । उनके जीवन यदि वास्तविक धर्ममय बन जायेंगे तो उनकी उन्नति होने में देर नहीं लगेगी। श्रतएव इस प्रथम कारण को पूर्ति करना परमावश्यक है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) • आजकल सागारण तौरसे अनागार गुरुजनों के कर्तव्य को पूर्ति का भार हमारे गण्यमान्य संस्कृतत पडितों ने लिया है। परन्तु वह विशेष कारणवश निन्थ गुरु, अश्या उदासीन नि. श्रावक को माँति सामाजिक व्यवस्था लाने में असमर्थ हैं। उनको इतना अवसर ही प्राप्त नहीं है कि वह समय भारत के जैनियों को दशा का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त कर सकें और उसको उन्नति का उपाय शुद्ध हृदय से जनता को बता सके। प्रत्युत देखने में उनके कार्यों से यही प्रगणित होता है कि उनके द्वारा समाज का अनिष्ट किन्ही यातों में विशेष कर हो रहा है। एक खाल वा नो गह है कि वह बहुधा पराधीन एवं परमुलापेनी होने के कारण अपने निजी भानों को प्रकट भी नहीं कर सकते हैं। उनके विषय में वस्तुनः पूर्वाचार्य के निश्न शन्द याद आते हैं कि__, "गुरुपो भट्टा जाया सद्देशुणि अणा सितिदाणाई। दुरिणवि श्रमणि सारा दूसमयम्मि चुडन्ति ॥ ३१॥' (उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला।) । अर्थात्-"पञ्चम काल विपै गुरु तो भार हो गए जो दा. ताओं की स्तुति कर दान लेते है । सो दाता और दान लेने घाले दोनों ही जिनमत के रहस्य से अनभिज्ञ है, ससार समद्र में डबते हैं। भावार्थ-दाता ते अपना भाव पोपने के अर्थ देता है और लेने गले लोभिष्ट हो दाता में अणछाते गुणों को भाट की तरह गाय दान लेते हैं। सॉ मिथ्यात्व कपाय के पुष्ट होने से दोनों हो ससार में उपते है और पञ्चम काल में,कहने की. अभिप्राय यह है कि जो इस प्रकार दान लेनेवाले अन्य मत में ब्राहण तो पहिले से भी थे, परन्तु अब जिनमन में भी भाट. की तरह स्तुति करा पार दान लेने वाले हो गये है, सो इस Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) निकृष्ट काल में ही हुयेहे।" ऐसी दशा में पाठक समझ सकते है कि निप्पन, निःस्वार्थी गुरुओं अथवा मार्गप्रदर्शकों की फितनी जटिल आवश्यकता है। दूसरा कारण मनुष्य गुणों का अभाव कितना हानिप्रद है, यह समाज की वर्तमान दशा से ही ज्ञात है। इसके विषय में भी हम पहिले कह चुके है। अतएव इसके निवारण का उपाय भी कितनेक अशो में प्रथम कारण के अभाव की पूर्ति के साथ सम्बन्धित है। क्योंकि जब प्रथम अभावकी पूर्तिहोकर मनुष्यों के जीवन धर्ममय वन जायगे तो उनकी शारीरिक, मानसिक ओर चारित्रक उन्नति होना अवश्यभावी है। और इस उन्नति के होने के साथ ही उनमें मनुष्य जैसे गुण स्वतः आजायेंगे। अतएर इस अभाद को पूर्ति का भी उपाय प्रथम के प्राधीन है यद्यपि निम्न कारणों के उपाय भी इसमें सहकारी होंगे। इस लिये इन दोनों उपायों से लाभ उठाने के लिये आवश्यक है कि समाज के विद्यमान संयमी पुरुष एकान्त में रहने के स्थान पर कार्यक्षेत्र में पाये और प्रत्येक प्रान्त में ग्रामवार पर्यटन करें और स्थानीय जैन जनता की देखभाल के लिये वयमाप्त अनुभवी चारित्रवान प्रभावशाली व्यक्ति को संयममार्ग का स्वरूप समझाकर उस ओर अग्रसर करें। इस उपाय को पूर्ति में सहज ही में समाज उन्नति के राज्यमार्ग पर पाजावेगी और शीघ्र ही उसके हास के कारण दूर हो जायेंगे। तीसरा कारण जैनजाति के हास में दैवी प्रकोप भी प्रमा. णिव होता है। अर्थात् उसमें प्लेगादि रोगों के भयावह परि णाम से भी हानि उठानी पड़ रही है। परन्तु यहां भी हम देव को कोस कर ही चुप नहीं रह सकते। इस देवी प्रकोप की उत्पत्ति का कारण किसी जीवन नियम का उल्लंघन करना Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) ही कहा जायगा। वृक्ष जगत पर यदि हम दृष्टि डालतो हम सहज में इस नियम का अनुमान कर सकते हैं । दो मुकाबले के पाग ले लीजिये । 'सुन्दर वनस्पतियाँ, नाना प्रकार के अनोखे फल और पत्तियां और कोमल लतायें लाखों रुपयों के खर्च से दोनो ही बागों में लगाई गई हैं। एक बाग की पत्तियाँ मुभा रही है लतायें कुम्हलाई जाती है, और दूसरे में ठोक वही वनस्पतियां हरीभरो सहरा रही है और लताय कोठी का कंगूरा छूना चाहती है । क्यों ? इसलिये कि एक धाग में उनकी रक्षा ठोक तरह पर नहीं की जाती, समय पर जल और बाद पाटि नहीं दिया जाता और दूसरी जगह इन सब पानों का अच्छा प्रबन्ध है । पुग्पप्रदर्शिनी और पुष्पपारितोषिक ( Flower shows reflower p11739 ) इस बात को सिद्ध करते है कि जिवनी अधिक देखभाल वनस्पतियों की होगी वे उतनी ही पुष्ट रोगी और बैले ही बड़े फल या फल देगी । । प्रकृति ने मनुष्यमान की उन्नति भो पूर्वोक्त नियम के अधीन रमवी है । मनुष्य का दीर्घायु या अल्पायु होना, श्राराग्य या रोगा होना,बलवान या निर्वल होना भिन्न भिन्न देशों की अच्छी या बुरी आयोहया पर, अच्छे या बुरे आहार पर और पुण्य या पापमय जीवन व्यतीत करनेपर निर्भर है।' (देखो देशदर्शन पृष्ठ ६२-६३)श्रितएव जैन समाज की इस कारण वश द्वास की अपेक्षाकर कहना होगा कि वह प्राकृतिक नियम के विरुद्ध आचरण करती है। देश की आबोहवा करीब करीब एकसी है परन्तु तो भी वह शहर और देहातोंकी अपेक्षा कृन भिन्न है। देहातों का जीवन सुखकर हो सकता है। और जैनो देहातों में रहना अब ठीक नहीं समझते, और वे वहां पनिस्वत शहरों के कम ही है । जैसे की अगाड़ी भात होगा। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०) अतरव वह आबोहवा का ध्यान भी कम रख रहे है। और आहार को भी यही नौवत है। भक्ष्यानन्य का विचार उनमें से उठ ही गया है। इने गिने हो लोग ऐसे हैं जो बाज़ार की भव्य नस्तुश्रो से परहेज करते हैं। और पदार्थों के गुण दोप का विचार करके उसका भक्षण करते हैं। हमारे पाँच सात घरों में भोजनको व्यवस्था किंचित है भो, परन्तु यहाँ पर भी पाकशास्त्रसे अनभिनता होने के कारण सात्विक भोजन का मिलना कठिन हो रहा है। मोजल के चटपटे और सुस्वाद बनाने की और विशेष ध्यान दिया जाता है, फिर चाहे भलेही मसालोको भरमार से उस पदार्थ का स्वाजाविक गुण नष्ट हो जावे। इस प्रकार पाहार का मो हमारे यहाँ ठीक प्रवन्ध नहीं है । श्रव जव कि हमारे भोजन की यह दुर्दशा है तब हमारे जीवन किस प्रकार के होगे यह सहज में अन्दाजा जा सकता है। लोकोक्ति हो इस बात को चरितार्थ कर रही है जैसा खावे अन्न-वैसा होवे मन । इसलिये कहना होगा हमारेजीवन पापमय है। इस को पुष्टि हमारे अगाड़ी के वर्णन से स्वत हो जावेगी। अतः जब हमारे रहने के स्थान की धागेहला, शरीर पुष्टि का भोजन और जीवन हो प्राकृतिक नियम के प्रतिकृल हैं तय हमारा प्रतिद्वन्द्वी दैव ही हो जाय तो आश्चर्य क्या है ! प्लेगादि रोगों से जैन जाति की क्षति अधिक नहीं होनी चाहिये क्योंकि रोग से बचने के साधन उनको सुगम थे। परन्तु जड़ता के कारण जैसे कि ऊपर दिखला चुके हैं, इस सक्रामक रोग आक्रमण से भी उसकी क्षति में सहायता पहुंची है । इन रोगों में वृद्धों की अपेक्षा युवक और युवतियां अधिक मृत्यु को प्राप्त हुए है। दुख यही है कि इन्हींले सन्तान उत्पन्न होती है जिससे जनसंख्या को वृद्धि Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) होती है। निसार भो युवतियो और स्त्रियों को ही मृत्युसंख्या वहो हुई प्राग्न है, जो पहलेले ही संख्या कम है। युक्तप्रान्त में मैग्ड़े पीछे पुरुष और ५.शियां मत्यु को प्राप्त हुई है। भारतवर्ष के विषय में कहा जाता है जो कि जैनसमाज के लिये भी उसी तरह लागू है कि: "The most obvious is the biglier rate of fc* male mortality during epidemics The recorded deaths from 11ague or any such severe epidemic, are inore among females thau among males and are in the ratio of 54 This is easily understable if we remember the life Indian women are forced to lead by our social customs Their houschold activities are such as to lay them open to infection more readily than the males They nurse the persons suffering ifrom contagious diseases, and they are most liable to the bites of the plague-infected rat-fleas on the malailacarrying mosquitoza" । (See The Census of India p 56 ) भावार्य-संक्रामक रोगों में लियो की मृत्यु पुरुषों को श्रपेना अधिक है अर्थात् ४ पुरुणे में ५. स्त्रियों को मृत्यु हुई है। स्त्रियों को इस अधिक मृत्यु के कारण हमारे सामाजिक्रवन्धन है। उनके गृहस्थ जीवन से सक्रामक रोगों से बचने की बहुत कम रक्षा है, प्रत्युत वे ही ऐसे रोगियों को लेया सुश्रूषा करती है जिससे उसरोग की शिकार बनती। अतपय इस कारण से भी हमें कुछ कम क्षति प्राप्त नहीं Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) होती। स्त्रियों को मृत्यु के मुख से बचाने के लिये श्रारण्यक है कि सामाजिक नियमों में उचित सुधार किया जाय। श्रीर इस आशङ्का से बचने के लिये उनमें पुरुषों के साथ चिकित्सा झान का प्रचार करना चाहिए। जिससे जीवन के स्वास्थ्यवर्धक नियमों का पालन हो सके। ययोंकि यह प्रकट है कि अनुकूल' शुद्ध सात्विक भोजन से, निर्मल जल और पवित्र वायु सेवन से, स्वच्छ हवादार कमरों में रहने से, बल और पौरुर को हानि न पहुंचाने वाली दिनचर्या से, शारीरिक बल और पराक्रम बढानेवाले व्यायाम (कसरत)ले,नेशन याराणीयता का क्षय करने वाले दो प्रधान कारण-घोर दरिद्रता और अत्यन्त अधिक धनाढयता-का सपूर्ण विनाश फरदेने से, ब्रह्मचर्य के पश्चात् योग्य और आरोग्य सन्तानोत्पत्ति से, स्वास्थ्यरना ओर उत्तम चिन्सिाशास्त्र के मान से, स्त्री और पुरुष की सामाजिक और मानसिक दशा बगवर ऊनी करने से, देश के सुखी होने से और शान्तिमय पवित्रजीवन व्यतीत करते रहने से, मनुष्य चाहे अजर और अमर न हो जाय: पर उसके जन्म और प्राकृतिक मरण के बीच का समय अर्थात् आयु बहुत बढ़ जायगी ओर परावर बढ़ती रहेगी।" (देखो देशदर्शन पष्ठ ६४) चौथा कारण निर्धनता चा दरिद्रता भी उक्त का सहगोमो है। इस के कारण भी विशेष हानि उठानी पड़ती है। क्योंकि 'दरिद्रता से लज्जा उत्पन्न होती है। लज्जायुक्त अपने अधि. कार से गिर जाता है। अधिकार से गिरे हुए का अपमान होता है। अपमान और तिरस्कार से दुःख और दुख से शोक उत्पन्न होता है। शोक से बुद्धि हीन होती है और निबुद्धि नाश को प्राप्त होता है । इस प्रकार देखा जाता है कि Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरिद्रना हो सारी आपत्तियों की मूलहै और इससे जन संख्या का नाश होता है। (देखो देशदर्शन पृष्ठ ३८) किन्तु हमारे कुछएक मित्र अवश्य ही जैन समाजके सम्बन्ध में निर्धनता वा दरिदता का नाम सुन कर चौंक उठगे। उन की दृष्टि में जैन जाति सर्व जातियों में धनशाली है । क्योंकि उसकी वाहिरदारी अर्थात् दिखलावे को जितनी बाते है वह सब इसो यातको सम्भावना कराती है कि जैनी बड़े धनी हैं। परन्तु अब बात बिलकुल उलटी है। निर्धनता वा दरिद्रता में बुद्धि हीन होजाती है और अपने दोप को-अपमान को छिपाने के लिए दरिद्ध व्यक्ति ढोंग रचता ही है। यही हालत जैन समाज की है। यद्यपि यह अवश्य है कि कतिपय खास व्यक्ति अवश्य ही धनशाली मिलेंगे। परन्तु समन जाति को इनके कारण धनशाली नहीं कहा जा सकता। जैनी निर्धनी हैं इस का प्रत्यक्ष प्रमाण उनको जनसंख्या का ह्रास, उनकी दुर्बलता और उनके पीले मुख हैं। जैनी ही नहीं प्रत्युत सारे भारतपासी इस सर्व घातक रोग से पीड़ित हैं। इसी निर्धनता के कारण प्राज इस कृषि प्रधान और पशु धन में गर्व रखने वाले देश में समाज को पुष्टकारी भोजन नहीं मिलता । जीवन पालन के मुख्य पदार्थ घी और दूध का तो अभावसा ही हो रहा है। उस के अभाव में शरीर दुर्बल हैं। और वे शीघ्र ही रोगों के शिकार बन जाते हैं। जिन से धन के अभाव में छुटकारा भी सहसा नहीं मिलता। हां, यह अगश्य मानना पड़ेगा कि हिन्दू और मुसलमानों की अपेक्षा जैनी धनवान अधिक है। इसलिए इस कारण से उनको क्षति अधिक होने की संभावना नहीं की जा सकती। किन्तु जरा गम्भीर विचार करने से विदित हो जाना है Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) कि हिन्दू आदि से अधिक धनी मैनियों को क्षति इस कारण से भी कुछ कम नहीं है। पुरुयों की भाँति धनवान न होते हुए भी या व्यर्थ बातों में लोपस्थ्य के निकाले हो हुई है। औरत ओर भी धनहीन भा द गृहस्थी के दैनिक भोकर ऊपर से कन्यायों के विचारों का मार हैं। इन कारणों से जीवन हो जाता है। यही जा है कि लगाने क्त्या को भी चेने पर को से है। समाज में जा ज 1 नाक रखने के लिये जो व्यर्थ ल जाने किया जारहा है वह समाज को बिना as धनाय ठिकाने कहलाते थे गए हैं। अपना बडप्पन स्थिराने के लिये रखने पड़ते है परन्तु भीतर ही भीतर शिक्षा स्वास्थ्य श्रादि बानोंमें कट्टी के ने लगायी बातोंमें विशेष खर्च करते है । यह पूर्व कोर्नियाभिमान मुरु धर्म के नाम पर भी अनर्थ कर रहा है। युगने मन्दिरों को सभाल नहीं, नए बनाते है। मन्दिरों और अन्य धर्मानों को अन्य लोग हड़प करते जॉय. इसको कुछ पर नहीं है दयात्रा और जीवन वार बसल्यॉग के निमित्त म् परन्तु वैसे तो गाड़ी एक गृहस्थ जैनीका कुटुन न कुटुम्ब दखिता के हदयाहो कुल सहरत हो तो भी ग नहीं आयगी । वहाँ वात्सल्यॉग रफूचक्कर हो जाय। शान को बच्चों के लिये भोजन नहो परन्तु दना ज़रूर करेंगे। " ? as a हेतु Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) यालक वानिकाओं को शिक्षा में उतना न खर्च होताजितना उनके विवाह पर होना है। स्त्रियाफेग्न होतेसमय हाशियार दाई, सफाई, औषधि, अच्छे आहार और जापे के पीछे और बालक के उत्तम पालन के लिए उत्तना खर्च नहीं करते जितना “साद में', कडा हलली बनाने में, गाना बजाना करवाने में और जाति में मिठाई गने में हाटा है। वीमार की टहल, श्रौषधि को अपना उसकी मृत्यु पर मोलर करने में पचास गुना ज्रादह खर्च किया जाता है। धर्म प्रचार आचरणसुधार मानदान, स्कूल, पाठशाला, कन्याशाला, छात्रालय, छात्रवृत्ति, और अच्छी पुस्तकों के प्रचार में इतना खर्च नहीं होता जितना वेश्या नृत्य में, श्रनिरावाजी में, जल्ले उत्सवों में होता है। (जैन संसार) . अतपब इन अनावश्यक अयोग्य कायों में व्यर्थ व्यय किए जानेले दिनपर दिन धन-घटता चला आरहा है और घटताही रहा नो बिलकुल दरिद्री बना देगा और नष्ट कर देगा। इसलिए इस प्रकार का आन्दोलन जाना गहिए जिससे बच्चे २ को इस दशा का परिचय हो जावे। और प्रत्येक पचायत में इस प्रकार के नियम यन, जाना चाहिये जिससे उपरोक्त प्रकार के व्यर्थ व्यय बन्द होकर उचित प्रकार से धन खर्च किया जासके जिससे समाज का हित हो। यह व्याह शादियो, योनारों श्रादि की तरह तरह की फिजत चियां एक दम उठा-देना चाहिये।.इस निर्धनता से बचकर हमें अपने पुरखो की सुख समृद्धशाली दशा प्राप्त करने के लिए व्यापार में जी जान से लग जाना चाहिए। मामूली दुकानदारो-दलाली-को हो व्यापार नहीं समभाना चाहिए । प्रन्युत नये २ व्यागारों की ओर दृष्टि दौडाना चाहिए। नये दंग के व्यापार पुराने ढंग के Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) व्यापारी को मिटाते जारहे है। इसके लिए देश विदेशों में धूम कर और अनुभव प्राप्तफरफे नए व्यापारीको चलाना चाहिये। इस प्रकार को उद्योग सस्था, धनियों को पोलना चाहिये जिनमें समाज के निरुद्योगो युवकों को शिल्प, व्यापार, कृषि आदि कार्य सिखाए जॉय । और उनके जीवन निर्वाह मुगम चन जाय। पांचवे स्वास्थ्य और उच्चशिक्षा की ओर से उदासीनता में मुख्य सहायक उपरोक्त कारण हैं। निर्धनता के कारना, इनकी ओर ध्यानही नहीं दिया जाता। स्वास्थ्य कितना गिरा हुश्रा है यह हमारा ह्रास ही कह रहा है । औसत आयु केवल पच्चीस वर्ष की है। इसमें मुख्य कारण जैनियोंमें उचित श्रम न करने का है। वे दुकानदारी करते हैं और सुबह से शाम तक गद्दी तकिये लगाए बैठे रहते हैं। परिश्रम कुछ करते नहीं। इस कारण सामान्य भोजन भी हजम होता नहीं । यही दशा स्त्रियों की है। वह गृहस्थी के कार्यों से मुँह चुराती हैं। अतएव स्वास्थ्य वर्द्धन के लिये आवश्यक है कि उचित व्यायाम की व्यवस्था की जावे। पुरुषों के लिए व्यायाम शालाये खोली जावें। जिन में उनको शरीर रक्षा की विविध देशो कलायें सिखाई जावे। और वे बलवान बन सके। सिवों के लिये भी पीसना कूटना श्रादि गृहस्थी के कार्यों के अदिरिक प्रति दिन स्वच्छ वायु सेवन का प्रवन्ध होना चाहिये। उच्च शिक्षा की भी यही दशा है। निर्धनता में यह प्राप्त नहीं है। 'व्यापारी जाति होने पर भी २०० पुरुषों में से ५० ही लिव पड सकते हैं। यूरुप के देशों में तथा जापान अमेरिका में ८० सेम फो सैकडा नो पुरुष लिखे पड़े हैं। यहां पर १०० स्त्रियों में केवल दो ही पढ़ी हुई हैं। और वे Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) भी केवल चिठी पत्री लिखने तक' । पुपी में भी ऐसे बहुत फम है जो जीवन को आदर्श वनानेवाले, उच्च चरित्र बनाने गते.और जीवन सफल बनानेवाले साहित्य को पढ़ सके हो। यहां मान थोड़ा हिन्दी का पान और ढीचा पहाडे श्रादि सिवादिए कि शिक्षा खतम होगई। बहुत हुयी तो माल पाठ व पूजादि सिखा दी। नैतिक शिक्षा अथवा उस लौकिक मिजा हुपकों को दीही नहीं जाती! युवको को वह शास्त्र तथा साहित्य नहीं पढ़ाया जाता जिससे यह पुरयायी हो, जिससे वे रनवलं. पंचनवण, फायबल उपार्जन कर जातिगेवां, देश नेपा और विश्वसेवा के योग्य बने। जिससे वे धर्मप्रति, जाति' प्रति, देशभनि, संसार प्रति अपना कर्तव्य पहिचाने अथवा जिससे उनके जोधन "जैन" जीवन चनं । हाँ बाल्यावस्था ओर गुपविणा में रंडियों का नाच दिखा, गानी सुना, नीच पुरुषों की संगति में छोड़ उनके जीवन निरर्थक, विषयी और विलासप्रिय तो अवश्य यनादिये जाते हैं। और इसका परिरणाम कहीं वेश्यागमन, कहीं परस्त्रीगमन, काही मदिरापान, कहीं स्वार्थीजीवन ओर कहीं व्यापार में झट इत्यादि होता है। (जैन ससार) जैनसमाज में इनेगिने विद्यालय ओर हाईस्कूल उच्च श्रादर्शशिक्षा प्रदान करने के लिये चाल भी किएंगए है, किन्तु उनसे यथेष्ट लार्म नहीं होता। इसमें मुख्य कारण उनको शिक्षा प्रणाली है। दोनों स्थानों से निकले हुए विद्यार्थी को मृत्यता स्वीकार करनी पड़ती है। अतएव उनमें शिक्षाकर्म का सुधार होना आवश्यक है, जिससे योग्य स्वावलम्बी विद्वान उत्प हो साइनमें जो समाज के धन से शिक्षा' पायें यह कम से' Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) कम दो वर्ष समाज की सेवा अवैतनिक रूप में करें जिससे समाज में शिक्षाका प्रचार हो। इस क्रियाद्वारा भी पूर्णलास प्राप्त नहीं होगा। इस क्रमले मात्र कुछ विद्वान उत्पन्न हो सकेंगे और यह समाज के ग्रामों में शिना प्रचारही करसकेंगे। इसलिए प्रत्येक शिक्षाके केन्द्र पर जैनवोर्डिग खोलना लाजमी है। उनमें धर्मशिक्षाका प्रवन्ध होना चाहिये । तया स्कालशिप योग्य छात्रोको दीजोय इस बात का प्रवन्ध होना चाहिए तथापि इनके साथही एक भारतीय जैन विश्वविद्यालय की स्थापना कीआयोजना होनी चाहिये । इस विश्वविद्यालय के दोविमाग रहे - एक में लौकिक उच्चकोटिकी शिक्षा का प्रवन्ध हो तथा दूसरे में धार्मिक और सस्कृतादिकी संयोजना हो. अथच इस हो के अन्तर्गत एक जैनशिक्षा समिति हो जो समग्र भारत के जैनियों में प्रारम्भिक और उच्च शिक्षा की व्यवस्था को चालक और बालिकाओं की समान-शिक्षा का प्रवन्ध करना इसके आधीन हो। इस तरहका प्रवन्ध होनेपर ही समाज में योग्य विद्वान उत्पन्न हो सकेंगे और शिक्षाका प्रचार हो सकेगा। छठे कारण वाल्य विवाह के दोषों से अव सभी करीव २ परिचित होगये है। परन्तु तोभी दुःख है कि हम इस प्रथा को नहीं छोड़ते। प्राचीनकाल में हमारे यहां प्रौढ़ अवस्था में अर्थात् पूर्णयुवा होने पर विवाह किया जाता था। परन्तु मुसलमानी समय से यह प्रथा उठगई। उनके डरके कारण छोटी उमर में शादी की जानेलगी और स्त्रियां घरों के अन्दर मूंदकर रक्खी जाने लगी। इससे बड़ा अनर्थ हुया शरीर शक्ति क्षीण होगई। शास्त्रकार ने विवाह का.समय पुरुष का. २० वर्ष की अवस्था में और स्त्री का १६ वर्ष की अवस्था में Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) बतलाया है जैसे कि जैनाचार्य वाग्मट के निम्न श्लोकले प्रगट है: "पूर्ण पोडशवर्यास्त्री पूर्ण विशेन संगता । । शुद्धगांशये मागें रक्त शुमोऽनिले हृदि । वीर्यवन्तं सुतं सूते ततो न्यूनाद्वयोः पुनः। रोग्यल्पायुरधन्यो वा गर्भो भवति नैव वा ॥" इसमें आचार्य साफतौरसे बतलाते हैं कि यदि कम उमर में विवाह कियाजायगातो अल्यायुफीसंतान होगी अथवा होगी ही नहीं। और वस्तुतः यही दशा आज होरही है। बाल्यविवाह करने का मुख्य कारण आज विवाहके उद्देश्य से अजानकारी है। श्रादिपुराण में विवाह का उद्देश्य संतान उत्पन्न करने और उसकी रक्षा करने में यल करना बतलाया है। विवाह के द्वारा प्रजाका सिलसिला चन्दन होकर धर्मका सिलसिला वरावर जारी रहता है। इससे विवाह का उद्देश्य धार्मिक संतान उत्पन्न करना पाया जाता है। परन्तु यहां इस बात का ध्यान नहीं दिया जाता और मात्र वासनापूर्ति के लिए अल्पायु में विवाह किए जाते हैं जिसके दुष्परिणाम के नमूने यह है : . (१) यचपन में विवाह करने से बालविधवायें बहुत हो जाती है। बचपन में उनके मां बाप कुछभम वा नीति का बोध नहीं कराते हैं, इसलिए वे अपने मनको मारने में असमर्थ हो नरपिशाचों के उकसाने पर अपना धर्म छोड देनी, है और युवावस्था में कुकर्म करने में लग जाती है। फिर अपने कुकर्म छिपाने के लिए उन्हें भ्रूण हत्या करनी पड़ती है। लोग, और सरकार सवही उनको बुरी निगाह से देखते हैं। इससे माता Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (=0) पिठा बदनाम होते है । यहबात केवल बालिकाओं के लिए ही नहीं है: बालकों की भी छुटपन से श्रादतें बिगड़ जाती ह डोर वे भी कुकर्म कर अल्पायु में हो नृत्यु के ग्रास हो जाते हैं थोर इन नन्हीं विधवाओंको विलखने और पापाचार करने की छोड़ जाते हैं, जिनसे माता पिता बदनाम होते हैं । किन्तु इन में दोष उन्हीं माता पिता का है जो छोटी ही उमर में उनका विवाह करदेते हैं। बालक बालिकाओं को तुशिना नहीं देते, उन्हें अपने भले बुरे लोचने की योग्यता प्राप्त नहीं करने देते, और उनके शरोर हृष्ट पुष्ट नहीं हो पाते कि विषय वासना के शिकन्जे में उन्हें जकड़ देते हैं । बड़ी उमर तक अधिवाहित रखने में वे अपनी नामूसी समते हैं । परन्तु अपनी पुत्र पुत्रियों को व्यभिचारी सुनकर वह नामूखी नहीं समझते 1 इसी दुष्ट प्रथाके कारण आज जैनियों में १५ वर्ष से कम उनकी विधवाएँ १२५६ ले शायद कुछ अधिक ही हैं। इतनी संख्या तो उनकी सन् १६९१ में थी और तब कुल जैन विधवाएँ १५३२७० थीं ! इन विश्वाओं की बढ़ोतरी का कारण यह वाल विवाह ही है । क्योंकि इसके कारण अधिकांश कन्याय १५ वर्ष में ही विधवा होजाती हैं । · The chief of these is the system of early marriage and the consequent system of widowhood. An appreciable percentage of girls lose their husbands in India before they are even 15 years of age, and since widow remarriage is prohibited in almost all sections of the Hindus, this large, number of women de -- 10 - Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ (३१) 201 contribnte to the increase of population. (The Census of India p 12) (२) बाल्यावस्था में विवाह होजाने से बालक बालिकाला को शिक्षा भी पूर्ण नहीं होने पाती। और वे जीवनापयोगी अवश्यमान पातकरने से बचित रहजाते हैं। और इस ज्ञान के जगान में उन के जीवन'उन्नत नहीं हो पाते । वे बहुधा दुरित होजानि है । प्राचीन काल में बालक और बातिकार्य प्राय गुना के वरीपर शिनामाति के लिए भेज दिय गते थे और पूर्ण वय प्रति करके सर्व प्रकार की शिक्षा से भूपित हो कर जब वे निकलते थे तब उनके विवाह होते थे । इसलिए पचनाने के लिए बडो उभर में शादी करना चारिश और तक बालक नालिजाओं को उचिंत शिनों का प्रबन्ध करना चाहिए। उनको ऐसे सल तमाशे भी नहीं दरने देने चाहिये जिनस कामवालना उरोजिय हो। , । (3) ऊपर हम देखेंगुके हैं कि विवाह का ऐक प्रधान श्य उपयुक्त संतान उत्पन्न करना है। अतएवं डोल्प बय में प्रति उस समय मेजवतकेकि देह और बुद्धि परिपकनहीं होती. है, विशह करना उचित नहीं है । कारण, जबतक जनक जननी के देह और मनकी पूर्णता न हाँगी, तबतक सन्तान सवल शरीर और प्रबलमना न हो सकेंगी। और स्वंय जनक जननी के जावन दुवैल शक्ति होने, निस्तेज, रोगी और सुनहीन होजाते ६। सायही उनकी उमर कम होजाती है। उनकी सन्तान् । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) निकम्मी होती है। यद्यपि बहुतायत से वह होती ही नहीं और होती भी है तो उनका जीवन कठिन होजाता है। यही कार हूँ कि बच्चे बहुत मरते हैं । "अल्पायु का गर्भ माता पिता और स्वयं उस पेट की सवान तीनों के लिए अत्यन्त हानिकारक होता है। पच्चीस बाल गर्भवती स्त्रियों की जांच की गई जिस से मालूम हुआ कि पांच लड़कियों का गर्भ गिरगया, तोन बच्चा जनने के समय मरगई, ६ को जनने के समय श्रत्यन्त कष्ट हुआ और उनके पेट से बच्चे औज़ारों के जरिये निकाले गए, पांच को वच्चा जनने के बाद पुराना मूत्ररोग होगया, दो बच्चा पैदा होने पर प्रसूती रोगमें पड़कर और अत्यन्त निर्बल होकर मरगई, ३ दूसरी बार वञ्चाजनने पर मरगई, २ तीसरी बार बच्चा जनते समय मरगई और १२ श्रत्यन्त क उठाकर मरने से बच्चगई, पर उनकी तन्दुरुस्ती जन्म भर के लिये बिगड़ गई । अर्थात् कुल २५ में से १० तो और १२ जन्म रोगिणी होगई, केवल ३ लड़कियां अच्छी रहीं ।" (देखो देशदर्शन पृष्ट १२६ - १३० ) । इस बालविवाह के कारण स्त्रियां किस ज्यादती से मृत्युको प्राप्त होती हैं यह इससे साफ, प्रगट है 1. The Census of Iudin नामक पुस्तक में स्त्रियों के प्रभाव के विषय में लिखा है कि " बालविवाह के और इस हेतु छोटी उमर में गर्भ धारण करने के कारण स्त्रियों की संख्या का कितना हास हुआ है वह निम्न कोष्टक से ही अनुभव किया जा सका है : इस Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० १२४ म४३ (१९४७ ४१३ ' (३३) १००० पुरुषोंकी मृत्युकी समानता में स्त्रियोंकी अन्दाजन मृत्यु संख्या प्रान्त J०-१५ वर्ष १५-२० २०-३० सर्वआयु चहाल ...... १३ १२१५ १९७१ 1८६७ विहार....... यम्बई ..... . १०२५ वर्मा • ... ७८ ८५६ मध्यप्रान्त ." .. | ४६ /१२३४ १२३१ ६० पञ्जाव : .... | १०३२ ६६६ १०५५. | ९६८ आगरा ओर अवध - ६७० | १०५६ ११०५ / ६६८ । इन संख्याओं से वह प्रभाव प्रकट है जो हमारे सामाजिक रिवाज के कारण स्त्रियों की घटोतरी पर पड़ता है। यह घटोतरी १५ और ३० वर्ष की उमर में अधिक है। और यह वह समय है जव स्त्रियों की देखभाल खूब होती है। ३० वर्ष के उपरान्त सर्व उमरों की मृत्यु संख्या घट जाती है। " इस वाल विवाह के परिणाम से जो एक भयावह दृष्य दृष्टिगोचर होता है वह यह जानने में है कि स्त्रियों की संख्या पहिले ही पुरुषों की अपेक्षा अधिक नहीं है । इस प्रकार जव पञ्जाव में पहिले ही १०० पुरुषों में २ स्त्रिये हैं तय वहां २० और ३०वर्ष को उमर में मृत्यु ६८ पुरुषों में १०५५ स्त्रियों की होती है।' इस तरह हिसाव लगाने से बाल विवाह के कारण मृत्युसंख्या ' Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) - मनास और हाल में पञ्जाव और युक्तमान् श्री ध्रपेना अविक है । इस प्रकार कस उम्र में शादी करने से भारत का दिखनहीं है। इसलिए जैन समाज भी उस दृप्रशासे लाभ नहीं उठा सकती। बाल विवाह के कारण ओ जनि बच्चों को होती है उसके विषय में हम पहितही कहनुके हैं। उक्त पुलक में भी बच्चों की अधिक मत्य का कारण उतझी मानाओ की अल्पायु वतलाईहै और कहा है कि वर्ष से कम उमर की स्त्री के जो बच्चा उत्पन होता है वह बच्पन शो में यदुधा मर जाता है और यह खेद जनक घटना उन माताको जनन शक्तिपर भी हारिज होती है । फलतः वह ३५ ग ४० वर्ष में वृद्धा हो जाती है। इस वालविवाह के कारण भारत के बार; सभी नवयुवक भी पेशाव, पेचिश या दुखार के रोग से जुड़ी रहते हैं। यहाँ पेशाव की बीमारियोंसे सारी दुनियासे अधिक तोग मरते हैं। फ़ी सैकड़ा १५ नवयुवक र गेगी के प्रास बनते हैं । (देश दर्शन पृष्ठ १३०)। अतएव प्रत्यायन है कि इस बाल विवाह के कारण जनजाति हो नही मात्र भारतही गारत हुआ जाता है । 'यदि कन्याओं का विवाह २५ घर्ष से कम की आयु में न लेता तो जैनिया में जार विमाय न होती । वे सधवा होकर कम से कम मालीस हजारग्नुप उपस्न करतो, जिससे जैनिया कानाश यालाच रुक जाता। (जैन हितपोभाग.१३ पृ ) - इसलिए इसका रोकता परमावश्यक है। साधारण जनता मैं इसके दुष्परिणाम का परिचय कराने के लिए छोटे हेतु बिल और ट्रक्ट वांटना चाहिये। उपदेशको और मसागर पनी द्वारा इसके विरुङलोकसत खड़ा कर देना चाहिए। फिर Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) ऐसा नियम करा देना चाहिए फि जब } बालक र बालिका मोड़ न हो तबतक उन्हें किसी अच्छे गुण के अधीन कर विद्याध्ययन करायें। मठ होने और शिल्पाने बाद उनका विवाह योग्य पुत्रों में किया जाय । रागमन (गाना) करने की आवश्यकता नहीं । इसलिये इस प्रथा को हटाना होगा। सातवें और थावे कारण वृद्ध विवाह और श्रन्सेल विवाह एक दो कोटि में थाजाते है। वृद्ध विवाह भी अनुमेत विवाह ही है। वहाँ ६० श्रीरम की मिसाल है तो दूसरी ओर ८ और १२ अथवा ६ ओर म का गठजोडा है । इन भेल सत्य के कारण मनुष्य जीवन मुतमय नहीं बीत सकता। इस कारस विवाह के उद्दश्च सिद्धि के लिए प्रोढ़ावस्या के योग्य बालक बालिका का सम्वन्ध करना चाहिए । यद्यपि हमने वृद्ध विवाह का समावेश अनमेल विवाह से कर दिया है, परन्तु ga विवाह से अधिक शनि होती है। यह विदित हो है कि "अन समाज में कन्याओं की सुरया बहुत ही कम है। इससे हजारो नवयुवकों को यही बाग. रहा पड़ता है। उस पर चूढे लोग अपनी कई २ शादियां करके और भी उनका हम सारदेते है । जो कथा किसी दुक्का से शादी करके पूर्व जीवन व्यतीत करती, और अनेक पुत्र कन्याओं की माना होधी, घटी एक कुठे खूसट के पजे में फँसकर दुःखों के पां पड़ती है, तथा रोगी सन्तान की माता होती है और शीघ्र at farer are दुराचारों की वृद्धि करती है। इसलिए वृद्ध विवाह को दुष्प्रया को शीघ्र ही यन्द करना चाहिए । इसके लिए पति को यन्न करना Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) चाहिए । पञ्चायतों की शक्ति को बढ़ाना हम लोगों के हाथमें है" । ( जैनहितैषी भाग १३ पृष्ठ ४८)। उनकेद्वारा इस प्रकारके नियम बनालेना चाहिये कि ३५ वर्ष की अवस्था के उपरान्त वाले पुरुषों के और रुपए देकर विवाह करनेवाले के विवाह में कोई भी सम्मिलित नहीं होगा। और इसका पालन जव पञ्चायत में सब करने लगेंगे तो फिर यह दुष्प्रथा शीघ्र ही मिट जायगी। सन् १९२१ की सरकारी मनुष्य संख्या रिपोर्ट के आधार पर जो उद्गार एक नव युवक ने पञ्जाव और देहली प्रान्तके सम्बन्ध में 'चोर' में प्रकट किए हैं उनसे जाना जाता है कि उस प्रान्त के जैनियों में प्रति सहन पुरुषों के पीछे कुल ५३ त्रिय है। जिनमें विधवायें भी सम्मिलित हैं। इस प्रान्त की विधवा वहिनों की संख्या का दिग्दर्शन करने से बूढ़े वावाओं की करतूतों और सामाजिक अधःपतन का खासा अन्दाजाहो जाता है। १५ से १६ वर्षकी आयु की विधवाय प्रतिशत निम्न प्रकार है: जैन ३१२ (सवातीन प्रतिशत से अधिक); हिन्दू ३१ (तीन प्रतिशत), मुसलमान २18 (तीन प्रतिशत से कम), सिक्ख ११७(पौने दो प्रतिशत से कम)। . वहीं एक से लेकर ३६ वर्ष की विधवायें प्रति सहन इस प्रकार थीं:- सन् १९०१ में न ५६; हिन्दू ४७, मुसलमान ३०; सन्-१९२१ में जैन ७६, हिन्दु ४६ और मुसलमान २६ । जो हाल पजाब का है वही शेष प्रान्तोका है। इसलिए सामाजिक सुधार के लिए शीघ्रतम तैयार होजाइये। । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) नवाँ कारण अतीवघणित शब्द व्यभिचार है। महा संयमी शोलवती भगवान महावीर की सन्तान प्राज व्यभिचारी है। यह कितनी नीचता की बात है । इस कलक को लिए हुए हम कभी भी उनकी सन्तान कहलानेके अधिकारी नहीं है ! भारत की अन्य समाजों की भांति जैन समाज में भी व्यभिचार का येशुमार प्रचार हो रहा है। "मात होता है कि शीलवत इस समाज से विदा ले चुका है और जैन धर्म का प्रभाव इसके हृदय से बिलकुल उठ गया है। यह समाज केवल ऊपर सेजैन धर्म का हा पहिने हुए है, जिसके भीतर इसका हृदय छिपा हुआ है। इसकी भीतरी हालत बड़ी ही गन्दी है। इस व्यभिचार के रोग में यहां के युवा ही प्रसित नहीं है, बालक और बूढ़े भी इसके पब्जे से बाहर नहीं है। यहाँ के वालक ७-- वर्ष के होते ही अश्लील शब्दों को सुन सुन कर उनके उच्चारण करने में पटु हो जाते हैं । पहिले तो वे उनका भाव समझे बिना ही उच्चारण करते रहते हैं, पोछे बारह तेरहवर्य केलगभग पहुंचने पर उन अश्लील शब्दों के द्वारा उत्पन्न हुएभावों को प्रयोग में लाने की चेष्टा करने लग जाते है। उनकी यह चेष्टा अनगमोडा, हस्त मैथुन आदि दुष्टदोपों के रूप में प्रकट होती है। व्यभिचार की यह पहिली सीढ़ी है। बाल्यावस्था में ये माय अनङ्ग मोड़ा आदि के रूप में और युवावस्था में परस्त्री सेवन, वेश्यागमन आदि के रूप में प्रकट होते है। जहां ये भाव हदय में अद्वित हो पाए फिर निकाले नहीं निकलते। ये उन्हें सदाके लिए व्यभिचारी बना देते हैं। त्रियां भी जय अपने पुरुषों को परस्त्रीगामी वा वेश्यागामी बना हुश्रा देखती हैं तो.घेभी अपने पातिवत्यसे शिथिल होने लगती है और अन्त में दुराचारिणी बन जाती हैं" ( जैन हितैषी भाग १३ पृष्ठ ४४८ )। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके साथ ही अन्य कारण व्यभिचार द्धि के उक्त अनमेल विवाह और पचपन'को "दुस्सइंति के अतिरित युती विववानी और युवाशुभारो की संख्या है। यह 'मानी हुई बात है कि काम जिरासमय मनुष्य को सताता है उस समय वह उस यो अन्धा कर देता है। आजकत की सोलाइटी का वातावरणे एसो फाय ओर बासना वर्धक हो रहा है कि यह अभाग'म. नुय काम की कुटिल चाल से बच नहीं पाते। इसो का परिगाम है कि नित्यति अणहत्याओं के समाचार सुनने में आने है । नीच जातियो से 'सत्संग करने पर बहुतेरे हमारे युग भाई दण्डित किए जाते हैं। यद्यपि उसी वृणित कार्य को करने वाले जाति के मुखिया और सत्तावान मनुष निदीप बने बैठे रहते हैं। वह हजार पाप करते दे तो भी धर्मात्मा बने रहते है और बेचारे गरीव युवक उनकी मार्याचारों में तड़पते है, दरिडत होते है। यह व्यभिचारी की मात्रा 'मामा को अपेक्षा शहरोरों अधिक है। और इसको कृपालेभी हमारी स्था घटी है, क्योंकि यह प्रगट है कि "व्यभिचारी सीपुरुषों के एफ तो सन्तान ही नहीं होती और यदि होती है त निर्वल, रोग और अस्पायु होती है । व्यभिचारी परंप स्वयं भी नियल, निस्तेज, साहसहीन, रोगी और अल्पायु होजाते हैं। रोग तो उन्हें घरही रहते हैं। लिंबो की भी यही देशी होती है । इसबढ़ेहुऐ व्यगिदार को रोकने की और भी शो ध्यान देना चाहिए। चची के चरित्र पर छुटपन से ही बल्कि उनके गर्भ में आने के समय से ही ईष्टि रखनी चाहिए। बच्चे जंव माता के गर्भ में 'श्रीते हैं तभी से उनपर माता के र मरले विचारों का प्रभाव पड़ता है । यदि माता के विचार अच्छे होंगे तो बच्चे उन्हें अपनी प्रकृति बनाकर जन्म लेंगे। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके बाद उनपर अच्छे संस्कार डाले डायंगे, उन कानी में सदेव अच्छे विचार पढ़ते रहो, उनको धिपय - सत्र अच्छेकार्य पड़ने रहेंगे, और वेअच्छे प्रादर्शी को-ओर झुकाए. जायंगे तो उनमे सदाचारी होने में कोई सन्देह नहीं ।, भागे उन विद्याध्ययन कराया जाय, नैतिक शिक्षा दी, जाय और कलव्य शोल बनाया जाय । तो उनका जीवन.वड़ी उत्तमवा.सं. चन्तीत होगा।" (जैनहितेपी भाग पृष्ट ४४९) रहे विद्य: मान व्यभिचारी पुरुष, उनमें भी समान का. प्रचार किया जाय। विधवाओं को पुरी निगाह से न देनाजाय। उन्हें वरम, मूंद कर-न रज्या जाय । बल्कि केन्द्रस्य स्थानों में विधवाश्रम खोले जाये, और उनमें उनको किसी विद्रुपी महिला कं प्राचीन पक्षा जाय । इस बात को कार्यस्प में परिणत देलने के लिये सर्व साधारण में इस का महत्व प्रकट किया जाय । और समाज के गण्यमान्य, सजन सबसे. पहिले अपने यहां की विधवाओं को. विश्वाश्रमों में भेजे। "स कम से जनसाधारण पर बड़ा प्रभाव पड़ेगा और.विधः राओं की दशा सुधर जावेशी, वे अपने जीवनलक्ष्य ..को, धान नेत्रों से देख सकेंगी और व्यभिचार से बच जावेगी । रहे, कुमारे युवक, उनम सहपदेश से कार्य लिया जाय। परन्तु उससे इच्छित फल कम होगा । ये निज समाज में नहीं तो अन्यर करते ही हैं। इसलिये उनके विवाहों का प्रवन्ध हो जाना चाहिये । यह किस तरह हो सकते हैं इसका विचार Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) हम अगाड़ी करेंगे। दसवां कारण पुरुषों का अविवाहित रह जाना और कन्याओं की कमी है। जैनसमाज में पुरुषों का विवाह २५ वर्ष से कम की ही उम्र में होजाता है, अतएव २५ वर्ष से अधिक उन्न के कुंवारे पुरुष वे ही होते है जिनके व्याहे जाने की बहुत ही कम आशा होती है। इन अविवाहित पुरुषों की औसत प्रति सैकड़ा १८५ पड़ती है। लग भग यही औसत २५ वर्ष से कम उम्र के पुरुषों में भी अविवाहितो को होगी। २५ वर्ष से कम उम्र के पुरुषों की संख्या २१ ७०० है । अतः इनमें भी प्रतिशत १६५ के हिसाबसे कोई चार हजार पुरुप अविवाहित रह जायेंगे। इसतरह कुल युक्तप्रान्त के ४०६५ पुरुपोमे से ७५०० पुरुष ऐसे हैं, जिनका विवाह नहीं हुआ और न होने की आशा है । ये वे पुरुष नहीं हैं जिन्होने ब्रह्मचर्यव्रत धारण करके अविवाहित रहना स्वीकार किया है। किन्तु ये वे है, जिनके विवाह हो नहीं सकते ! इस तरह जैन समाज के पुरुषों का पांचवां हिस्सा अविवाहित रह जाता है। यदि इनका विवाह हो गया होता तो इनके सन्तान उत्पन्न होती.. और कुछ वृद्धि ही होती। - (जैनहितैषी भाग १३ पृष्ट ४४६). "जैनसमाजके एक पंचमांश पुरुषों के अविवाहित रहने के नीचे लिखे कारण हैं : '१-त्रियों की कमी। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ('a') भारतवर्ष के विविध प्रान्तों में १००० पुरुषों की समानता में इस प्रकार स्त्रियां थीं : प्रान्त बंगाल बिहार. बम्बई.. ... # • बर्मा ... ....... मध्यप्रान्त ....... मद्रास....... पंजाब... संयुक्तप्रान्त. ब्रिटिशइन्डिया .. ..... सन् १६९१ १६०१ १८६२ १८८१ हृष्टपू ६६० ७३ ६६ २०४३. १०४७ २०४० १०२४ £33. ४५ ६३८ ६३८ ६५६ ६६२ ६६२ ८७७ १००८ २०१६ + पू ६७३ १०३२ १०२६ | १०२३ १०२१ =१७ ६१५ સ્પષ્ટ ८५४ ८५० ८४४ ६३७ ६३ હર ६३ हपू પુ } इससे ज्ञात होता है कि सन् १८८१ की गणना में १००० पुरुषों की समानता में पूष्ट स्त्रियां थी और इसके बादुके २० वर्षो में वही बढ़कर ६३ हो गई । परन्तु श्रव सन् १६११ मे वह फिर उसी सन् १८८९ वाली संख्या पर पहुंच गई है। और सन् १९२१ की गणना में और भी घटी होगी क्यों कि जो कारण उसके हासके सन् १९११ में थे, वह घटे नही हैं । इस कोष्ठक में एक खास बात ध्यान देने की यह है कि विहार, वर्मा, मध्यप्रान्त और मद्रास प्रान्तों की स्त्रियोंकी संख्या बढ़ी ही है । इसका कारण सहज में समझ में आ जाता है । इन प्रान्तों Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) में बाल विवाह प्रादि कुरीतियों का प्रचार कम है और त्रियाँ का श्रादर यथेठ है। प्राचीन कान की नांनिये पद से बरो हैं और शिना ले भूपिन हैं। उनमें प्राचीन सभ्यता की मतक है। इसी कारण उनकी संख्या अन्य प्रान्तों की अपेक्षा पढ़ी हुई है। इसी हिताय से इन प्रान्तों के निवाली जैनियों को संख्या समझना चाहिए । वस्तुत:- मद्रास प्रान्त की जैन सगज में अधिकतर-प्राचीन रीति रिवाज भी मिल रहे हैं परन्तु उनमें निर्धनता उत्तर प्रान्त को अपेक्षा अधिक है।दूउरी वात विचारणीय यह है कि भारत में १००० पुम्मों में पाँच वर्ष की उमर को त्रियां २०३-है। इससे भी प्रमाणित होता है कि पांच वर्ष के उपरान्त ही ऐसे काम लिया वन में उपस्थित होते हैं जो उनकी घटी करदेते हैं। यह कारण क्या है ? मनुष्याना को रिपोर्ट में तिष्ठा है कि पुराण कोअपेक्षा रियों को अधिक मन्यु के कारण उनसे बुरा पर करना, अधिक काम लेना, उनका अनादर, न स्वास्थ्यनाशक पद का होना, उनका वालपन में विवाद होना और बचपन में ही गर्भवती होजाना आदि हैं। उन्हीं का दिग्दर्शन हम ऊपर कर चुके हैं। और निम्न कोष्टक-से भी इसी यात को पुष्टि होती है जिससे प्रश्न है कि उक्त कारमा वश वील. वर्ष कोलियो अधिक मृत्यु होता है जिसके कारसत्तस्त्र के पश्चात् कोराघवायाको अपेक्षाविधवाग्रामीसंख्या अधिक है। १० से-१४ वर्ष तककी १००० लीजादिमट विधवाएँ हैं। १५ से १६ , , . ६६ . . ४०-से-५8-. ६०-से ऊपर, , , y , ५७१--, ., - - -७२६. "', Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतएव कन्याओं की कमी को रोकने के लिये वाल विवाह परदा आदि कुरीतियों को रोक कर प्राचीन रीतियों काप्रचार स्त्री समाज में करना चाहिये। इस समय जैन समाज में पुरुषों से स्त्रियां ४०००० कम हैं और शेप स्त्रियों में डेढ़ लाख विधधाएँ हैं। २-पुरुषों का बार बार विवाह करना भी अधिक पुरुषों के अविवाहित रहने का कारण है। एक तो पहिले ही स्त्रियां कम है । उस पर एक २ पुरुष कई २ विवाह करके इन स्त्रियो के 'अकाल' को और भी अधिक बढ़ा देता है। जिससे अधिकांश पुरुप कुंवारे रहते हैं और व्यभिचार की वृद्धि करते हैं। सरकारी रिपोर्ट में यह अच्छी तरह से दिखा दिया गया है कि यहां स्त्रियां ही अधिक भरती हैं। अतएव विधवाओं की अपेक्षारंदुओं की कमी का कारण यही है कि रंडुवे दुवारा शादी करलेते है और विवाहितों में गिन लिए जाते हैं। वृद्ध विवाह, कन्याविक्रय के साथ ही धन का दोसत्व भी अधिक पुरुषों के अविवाहित रहने का कारण है। इसके कारण अयोग्य धनिकों के अनेक विवाह हो जाते हैं, पर बहुत से निर्धनी सुयोग्य पुरुषों का एक भी नहीं होने पाता। धन के लोभ से लोग स्त्रियों के असली सुख 'सुयोग्य पति' के महत्व को भूल गए हैं। अतएव इस प्रकार के प्रयत्ल करना चाहिये जिनसे पुरुप चार २ विवाह न करें और निर्धनी सुयोग्य व्यक्तियों के भी विवाह हो सके। ३-उपरोक्त दो कारणों के दूर होते होते जो कमी स्त्रियों की है उसके कारण जो पुरुष विवाह योग्य होने पर भी अविवाहित रह जाते है और सख्या का हास सन्तानोत्पत्ति न करके करते हैं, उसका भी प्रवन्ध होना चाहिये। इसके Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिये एक यही मार्ग है कि अन्य उच्चजातियों में से वे कन्याओं को ले पावें। इसमें शास्त्र विरोध भी कोई उपस्थित नहीं होता, क्योंकि हम पहिले जीवंधरकुमार के चरित्र में देख चुके हैं कि जैन धर्मानुयायियों में इस प्रकार के विवाह चाज, थे।अथवा श्री आदिपुराण जी के कथनानुसार इस ओर अविवाहित पुरुषों के लिये मार्ग खोल देना चाहिये। आदि . पुराण का कथन है कि:- । । "शुद्धाशद्रेण वोढव्या नान्या स्वां तां च नेगमः। ' . वहेत्स्वाते चराजन्यः स्वां द्विजन्मोक्कचिच्चताः॥२४७॥१६॥" ___ कहा है कि ब्राह्मण चारों वर्षों की कन्याओं से, क्षत्री अपने वर्ण की तथा वैश्य और शूद्र की कन्याओं से और वैश्य अपने वर्ण की कन्या से तथा शद्र की कन्या से विवाह कर सक्ता है। एवं शुद्र शुद्र ही से। इस कथन की पुष्टि जैन आर्षग्रन्थों के दायभाग के विवरणों से भी होती है जिसमें अन्य वर्णों की कन्याओं से उत्पन्न पुत्रों का अधिकार प्रथका लिखा है। (देखो "वीर" के १०३ अङ्क में "जैनलो' शीर्षक लेख) इनके अतिरिक्त मेधावी कृत श्रावका चार और सोमदेव के त्रिवर्णाचार में भी वर्णी के परस्पर विवाह करने काउल्लेख: है। एक इसकी पुष्टिं विक्रम सं०६०० के एक शिलालेख से भी होती है जो जोधपुर के पास से मिला है। उसमें एक सरदार द्वारा जैनमन्दिर बनवाने का उल्लेख है तथा उसकी उत्पत्ति उस पुरुप से वतलाई है जिसका विवाह एक ब्राह्मण वंशज से हुआ था। और जब इस प्रकार हम शिलालेखीय प्रमाणभी इसकी पुष्टि में पाते हैं तो कोई कारण शेष नहीं रहना कि. अन्य वर्णों अथवा जातियों में से कन्यायें स्वीकार न की जावे! हां शायद यह वात यहॉ पर वाधक हो कि अजैनों के साथ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) किस तरह निशाह किया जाय १ सो पहिले तो शास्त्रों में इस धात का निषेत्र कहीं मिलता नहीं और यदि हम प्रथमानुयोग के चरित्र ग्रन्थों में दढे तो हमें उल्टा ही माजरा मिलता है। राजा श्रेणिक अजैन थे और उनकी रानी चेलिनी जैन थी, कवि धनजय जैन थे और उनकी स्त्री वौद्ध थीं। ऐसे ही खोजने से और भी उदाहरण मितसकते हैं। इनसे प्रमाणित है कि हमारे पूर्वज-धर्म का भी कुछ ख्याल नहीं रखते थे। परन्तु यदि आप एकदम इत्तनो लम्बो छलांग मारने को तैयार नहीं हैं तो लोहाचार्य प्रभृति इस काल के प्राचार्यों का अनुकरण कीजिये । इन प्राचार्यों ने विविध विधर्मी लोगों को जैनी बनाया और उनका परस्पर में विवाह सम्बध खुलवा दिया। आरा.धना कथाकोष में एक से अधिक कथाएँ ऐसी है कि जिनसे प्रमाणित होता है कि जब कोई विधर्मी जैनी हो जाता था तो उससे विवाह सम्बन्ध खोल लिया जाता था। आदि पुराण में दीक्षान्वयक्रियाय इसही वात को लक्ष्य कर दीगई है। अतएव ऐसी दशा में इस समय जो अविवाहित पुरुष हैं उन्हें अन्य जातियों से विवाह करने को प्रामा पचायतों से मिलनी चाहिये ऐसा प्रबन्ध किया जाय । रहा इसमें शुद्धा. शद्धि का विचार सो यदि इसमें अशुद्धि होती तो हमारे आचार्यगण ही क्यों ऐसा विधान कर जाते और पूर्व पुरुष दयों इस प्रकार के विवाह करते। आजकल भी बहुत से नराधम नीच जाति की स्त्रियों से गुप्त प्रेम रखते हैं और वह समाज में मान्य है । पर उनसे कोई अशुद्धि फैलती नहीं सुनाई पड़ती है तिस पर इस विषय में श्रादिपुराण जी में साफ कहा है कि 'जो हिंसा करता है वह अन्याय करता है और अन्याय करने घाला ही अशुद्ध है, और जो दया करता है, वह न्यायवान है Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) " श्रौर जो न्यायवान है वह शुद्ध है' 1 ( लो० १४६ पर्व ३६ ) | इस कथन से किसी जाति वा धर्ण की अपेक्षाकृत शुद्धि प्रतीत नहीं होती। संभवतः यही कारण है कि पुरातन पुरुषों ने उक्त प्रकार से विवाह करने का नियम निर्धारित कर रक्खा था । और इस दृष्टि से तो भ्रूणहत्या श्रादि के रूप में हिंसा करने वा कगने के कारण स्वयं सारा समाज अशुरू हो रहा है । इसलिये यह उपाय शास्त्र के अनुकूल है और जाति की संख्या बढ़ाने का कारण है । इसका प्रयोग में थाना अत्यन्त श्रवश्यक है। यदि किन्ही भाई साहबों को प्राचीन आचार्यों के वचनों में श्रद्धा न हो और वे इस उपाय से अपने को अशुद्ध होता समझे तो इस प्रकार की व्यवस्था कर दी जाय कि ऐसे पुरुषों की एक जाति प्रथक रहे किन्तु सामाजिक अधिकारों के अतिरिक्त उनके धार्मिक अधिकार पूर्वक हो । इस उपाय द्वारा संस्था की वृद्धि होगी और व्यभिचार भी रुकेगा इस पर शांत चिंत्त से विचार करना श्रावश्यक है । यह शास श्रीर द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के अनुकूल है। इन्हीं का ध्यान हमारे पूर्वजों को रहा है जैसा कि हम प्रारंभ में देख चुके है कि इसी अपेक्षा कर रीतिरिवाज बदलते रहे हैं। इस का प्रचार करना अति लाभप्रद है । ग्यारहवाँ कारण छोटी छोटी जातियों का होना और अपनी जाति के अतिरिक्त अन्य जातियों में विवाह न करना है । जैनशास्त्रों के अध्ययन से यह पता नहीं चलता कि श्रमुक समय में अमुक तीर्थंकर वा श्रार्प पुरुष ने जाति व्यवस्था स्थापित की थी । सो भी किन नियमों पर १ जिस प्रकार लौकिक प्रयोजन के निमित्त भगवान ऋषभदेव द्वारा वर्णbयवस्था के स्थिर होने का उल्लेख है उसी प्रकार जाति के Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) स्थापन होने का कहीं भी कोई उल्लेख शास्त्रों में देखने में नहीं आता। इसलिए यही सिद्ध होता है कि मुसलमानी समय के लगभग लोग अलग अलग टोलीयांध रहने लगे और वे अपने अन्य प्रान्तीय साधर्मी भाइयों के रीति रिवाजों और सम्पर्क से बञ्चित रहने के कारण उनको अपने से भिन्न समझने लगगए, जैसे कि हम प्रारम्भ में भी बतला आए है । यही यात युक्किसंगत है क्योंकि यदि जाति का आपसी भेद' प्राचीन काल से शास्त्रानुकूल होता तो आदि पुराण में उक्त प्रकार का भेद-लोपक विधान न होता। और जैन संहिताओं में शुढाओ से उत्पन्न पुत्रों का अलग अधिकार नहीं दिया होता। प्राचीन जैन लेखों से विविध जातियों की उत्पत्ति उक्त प्रकार हुई है, यह प्रमाणित है। (देखो "जैन लेख संग्रह" ) अतएव प्रकट है कि जाति भेद जैसा कि आज समाज में प्रचलित है शास्त्र सम्मत नहीं है। जिसके कारण विवाहक्षेत्र संकुचित हो रहा है और समाज की बड़ी हानि हो रही है। क्योंकि जैन समाज में ऐसी बहुतसी जातियां हैं जिनकी जन संख्या ५०० से भी कम है। यह अगले पृष्ठ पर दिये गये कोष्ठक से साफ प्रगट हैजो 'दि जैन डिरेक्टरी से उद्धत है: Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाति खंडेलवाल .. भभवाल. जैसवार... ... २७६५२ ३३०० परवार ..... ६५४५ २३५१६ १६८१ पद्मावतीपरवार.... ८७४४ ૪૬ ૨૨૭૦ पल्लीवाल...... ३७५२ ५७ ४२२ गोलालारे २०६५ १६०० १५६२ विनैकया........ ३२२५ ४२२ श्रोसवाल १२२ गंगेरयाल.. 4.44 ... युक्त- सी पी प्रान्त ..... मालवो पजाब | बम्बई | बिहार मैसूर ६१६ ४८१४ १३०८ -C|૨૪૦૨ ૨૩૩૪૯ ५६६ । १७३१ १०५८ ३२१ १३४ ३५६२१२६३ / ५३१३२ १३६ T } I ६ ५६१५ २०३ १० ३५३ | ६३६ १७६ १‍ gand Le १२ २ ३८३ O 1 ३० ११ २० 0 १६४७२६ ० ६७१२१ ११५ ११०६ ५६ ४१६६६ ६ ११५६१ ४२७२ ५५८२ ३६०५ ७०२ ७७२ ● t O कुल (४८) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्ता पी पी. प्रान्त - -- जाति र हाला पदाला मद्रास पू पंजाब . बिहार । कुल मालया। । ० १५८४ - . - - वड़ेले ..... बरैया.. . . फतहपुरिया... पोरवाड़. ... - . ० . ० २५ - पदद ० (38) ० ઉ૦૨ बुढेले... लोहिया....: गोलसिंघारे...... खरौआ..... . ० ६२६ ० १७५० ०/ १९७७ - - लमेचू.. गोलापूरच ... ।। ७१४८९० ७१४६४७६, ३७६] ० १०६४० . - Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) "इस कोष्ठक में पाठक देखेंगे कि युक्त प्रान्त में गंगेरवाल, वडेले, चरैया, पोरवाड़ आदि कितनी ही जैन जातियां ऐसी हैं जिनकी संख्या ५०० से कम है और जो समग्र भारत में भी १००० से कम हैं । दि० जैन डाइरेकरी से विदित होता है कि केवल दि० संप्रदाय में ४१ जातियां ऐसी है जिनकी संख्या ५०० से १००० तक है: २० ऐसी हैं जिनकी १००० से ५००० तक है और १२ जातियां ऐसी हैं जिनकी संख्या ५००० से अधिक है। इनके अतिरिक्त ऐसी भी कई जातियाँ हैं जिनकी सख्या २० से लेकर २०० तक के बीच में है। ऐसी जातियां बढ़े वेग से कम हो रही है यह दश वर्ष में श्राधी व एक तिहाई हो जाती हैं।.. इसका कारण यह है कि इन में विवाह बड़ी कठिनाई से होते है । विवाह का क्षेत्र छोटा होने से श्रोर गोत्र आदि को अधिक भंझटों से प्रायः वे मेल विवाह करने पढ़ते है। और इस प्रकार के विवाहों से जन संख्या की वृद्धि में कितनी रुकावट पड़ती है यह बतलाने की जरूरत नहीं ।" ( जैनहितैषी ४५२ ) "बुट्टेले " जाति की जन संख्या सन् १६१७ में =२६ थी। इन में ४५४ पुरुष थे और ३७२ स्त्रियाँ ! इनमें कुल १७८ स्त्रीपुरुष विवाहित अर्थात् दम्पतिरूप में हैं विधवायै ४ हैं । ४५ वर्ष से कम उमर के ७३ पुरुष ओर १३१ । बालक, इसतरह कुल २०४ पुरुष विवाह योग्य हैं। परन्तु कन्याओं की संख्या कुल १०० ही है । अर्थात् इस जाति के १०४ पुरुषोंके भाग्यमें जीवनभर बिना स्त्रीके ही रहना लिखा है । इसके उपरान्त जो इस जाति की गणना मुशकिल से दो साल के बाद की गई तो वह मात्र ७७७ही संख्या में निकली। इसमें पुरुष ४२६ व स्त्रियों ३४= निकलीं ! अविवाहित बालक Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) १५३ और बालिका मात्र १०५ एव ३० वर्ष अथवा उससे कम के १० विधुर व १७ विधवाये है। और फिर यदि कहीं भाज 'इसकी गणना की जाय तो कठिनता से ७०० को हो संख्या 1 में मिलेगी। इसतरह विवाह क्षेत्र का सकोच ही यह कारण है । कि वह एक दम घट रही है और ऐसी कठिन समस्या है कि सम्बन्ध करना कठिन हो रहे हैं क्योंकि करीव करीव सपका सबसे कोई न कोई पहिले का रिश्ता है। इस अवस्था में यह जाति अधिक दिन जो नहीं सकी । परन्तु यदि अन्य जातियों से विवाह सम्बन्ध होने लग जावे तो इस को संख्या बढ़ने लगे और अनमेल विवाह, कन्याविक्रय श्रादि न होकर परस्पर प्रेम की वृद्धि हो । प्रत्येक जाति में विवाह सम्बन्ध खुल जाना धार्मिक एवं सामाजिक दोनों दृष्टियों से लाभप्रद है। क्योंकि शास्त्रों में जव यथाविधि वर्षों में विवाह करने की आशा है तो एक ही वर्ण के मनुष्यों के परस्पर विवाह करने में कोई हानि नहीं हो सकती। इसके अतिरिक शिलालेखीय ऐतिहासिक खोज से यह स्पष्टतः प्रमाणित है कि आज कल जो उपजातियां जैनसमाज में दिखलाई पड़ रही है, वे क्षत्रीवंश के परमार्जित वश ही हैं यह यात पूर्णरूप से मेरी पुस्तक "प्राचीन जैन लेख एवं प्रश:स्तिसंग्रह" जो जैनसुधाकर प्रेस, वर्धा से प्रकट हुई है, • प्रमाणित है। और यह शास्त्रसम्मत नहीं है कि एक वश के पुरुष परस्पर विवाह संबन्ध करें। इसलिये इस समयअग्रवाल खण्डेलवाल आदि उपजातियों को परस्पर एक दूसरे से विवाह करना चाहिये। मूलाचार में एक स्थान पर स्पष्ट बतलाया है कि जो माता का कुल होता है वह तो संतान की जाति होती है और जो पिता काबंश होता है वह उसका कुल Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) होता है। ऐसी अवस्था में भी एक ही जाति में विवाहसम्बन्धी करना शालसम्मत नहीं है। शास्त्रसम्मत तो यही है कि एक जाति के स्थान पर अन्य जातियों से परस्पर रोटी-बेटी व्यव हार किया जाय । इस विषय में केवल शास्त्रीय-श्रावकाचार! और श्रादिपुराण आदि प्रथमानुयोग की ही साक्षी मात्र प्राप्त. नहीं हैं प्रत्युत प्राचीन शिलालेखोंसे भीवहींप्रमाणित है कि पहिले इसी प्रकार वर्णों और पश्चात् जातियों मेंसंबन्ध होने थे। शिलालेखों की नकल उपरोल्लिलित पुलक में देखी जासकती। है। अतएव जब हमारे पूर्वज केवल अपने वर्ण की ही कन्याओं से नहीं बल्कि अन्य वर्गों को भी कन्याओं से विवाह करते थे तो आज श्रावश्यक्तानुसार उसका अनुकरण क्यो नहीं किया जाय ! ऐसा करने से जाति का लोप कभी नहीं होगा। जिस प्रकार दूसरे गोत्र में विवाह करने से गोत्र भेद नहीं मिटता है उसी प्रकार दूसरी जाति में विवाह करने से जाति भेद भी नहीं मिटेगा! - सामाजिक रीतिरिवाजो में वाह्य भेद भले ही हो परन्तु वैसे जीवन नियम करीव २ समान ही हैं। इसलिये परस्पर विवाह सम्बन्ध सर्व जातियों में होना आवश्यक है। इसमें यह भय करना कि धनिक जाति के लोग गरीव जाति की सव लड़कियाँ लेलेंगे और उस जाति को संख्या एकदम घट जायगी, दूसरे शब्दों में वृद्धविवाह और कन्याविक्रय को जायज करना है । अस्तु यह भय भयमात्र है। इससे समाज का शारीरिक वल भी बढ़ेगा। क्योंकि मानसशास्त्र के वेत्ता सप्रमाण इस बात को सिद्ध करते हैं कि यदि कोई राष्ट्र उन्नति करना चाहता है तो उसे अपने अपने वर्ण के मनुष्यों में अन्तर्जातीय और अन्तर-प्रान्तीय विवाह करना चाहिये । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) शेष कारणों में विवाहमें बाधक अन्य कारण गोत्रोको टालने और जन्म पत्रियां मिलाना आदि हैं। इनका विचार स्थानीय 'पञ्चायत कर सकती है। इन बाधाओं का हटानाउपयोगी है। एक प्रवल कारण क्षति का आपसी विरोध है। यह शिक्षा के प्रचार से मिट सकता है। श्रतएव शिक्षा प्रचार का विशेष प्रबन्ध होना चाहिये। साथ ही धर्मायतनों का हिसाव प्रतिवर्ष प्रकट नहीं किया जाता, वह भी इस विरोध का कारण है। इस का भी प्रवन्ध होना चाहिये । तथापि पञ्चायतों में निष्पक्ष भाव से निर्णय होना चाहिये, इस बात का महत्व जनता को समझाना आवश्यक है। । पञ्चायती संगटन में दृढतानाने से ही वास्तविक सुधार हो सकेगा। इसमें सबसे पहिले इस सुधार की आवश्यकता है कि जातीय पक्ष को निकाल दिया जाय! आजकल पञ्चायतों में जातीय पक्षपात चर्म-सीमा को बढ़ा हुआ है। यक्ष नक कि उसके समक्ष-धार्मिक सिद्धान्त का भी खयाल नहीं किया जाता है। एक सम्यग्हटी-जिनधर्म के श्रद्धानी के लिये आतिमद, कुलमद पापोपार्जन के कारण बताये हैं। भाजकल लोग इस बात की तनिक भी परवाह नहीं करते। यह जातीय पक्षपात परस्पर रोटी येटी व्यवहार के खुलने से बहुत जल्दी दूर होजायगा। अतएव पचायतों के जातीय एव व्यक्तिगत पक्षपात से शून्य होने के लिये आवश्यक है कि उनका यथो. चित संगठन किया जाय । प्रत्येक पञ्चायत का उहश्य हो कि वह स्थानीय मन्दिर आदि धार्मिक संस्थाओं एवं सामा'जिक दशा की उन्नति का प्रबन्ध करे। उन उह श्यों की सिद्धि सुचारु रीति से हो सके इसके लिये प्रत्येक पंचायतों को अपने नियम सर्वसम्मति से बना लेना चाहिये। जैसे प्रत्येक Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) वर्ष कार्यकर्ताओं का चुनाव, आमदनी और खर्च का निश्चय एवं गत विगत का व्योरेवार हिसाब तथा जीर्णोद्धार प्रन्यो. द्वार का निर्णय और समाजोन्नति के लिये उक्त उपायों को प्रचार में लाने के नियम जो इस पुस्तक में बताये गये हैं इस के लिए आवश्यक है कि कायदेवार स्थानीय घरों में से एक एक पञ्च चुना जाय। उनमें से पक सभापति, एक मत्री, एक खजानची और एक निरीक्षक साधारणरूप में चुने जायँ तथा खास काम के लिए अन्य व्यक्ति नियत कीये जायें। इन सब का चुनाव सर्वसम्मति से हो । पञ्चायती नियमों का पालन समुचित रीति से हो रहा है या नहीं इस यात के लिये हर महीने में एक बार पंचायत एकत्रित होना चाहिए। मंत्री सव कार्य लिखित रूप में रखे, जिससे कोई विवाद नहो । इस तरह का संगठन होने पर शीघ्र ही जरूरी सुधार सर्वत्र हो जावेगा। उपरोक्त वर्णन में हम देखचुके हैं कि हमारे यहाँ खियों की उचित देखभात नहीं होती। उनकी शिक्षा का प्रवन्ध नहीं होता। उनके शारीरिक स्वास्थ्य की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। इस कारण उनकी मृत्यु अधिक होती है। उनका उचित श्रादर किये जाने और उनमें ज्ञान-संचार करने का प्रबन्ध होना चाहिए। अन्य दो कारणों में गाँवों को जैनो छोड़ कर शहरों में वसते जाते हैं। कारण इसका यही है कि उनका शारीरिक बल उतना नहीं रहा है जो चे ग्राम्य जीवन व्यतीत करसके। तिसपर व्यापार निमित शहरों में वे अधिकता से आजाते हैं। सरकारी रिपोर्ट के निम्नांक से ज्ञात हो जायगा कि फो सैकड़े कितने जैनी शहरों में रहते हैं: बङ्गाल ५६२, विहार ३७८, बम्बई ३६६, वर्मा ६.१, Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) राध्यप्रान्त २५.५, मद्रास १०६, पंजाब ५३.३, और संयुक्तप्रांत ३६७ । इनमें मंद्रास और मध्यप्रांत ही ऐसे प्रान्त हैं जिनमें जैनी प्रामों में अधिक रहते हैं। यह भी एक कारण है कि वहाँ के जैनियों की संख्या बड़ी है, जैसे कि हम पहिले देखचुके हैं। बात यह है कि गाँव में रहने सेश्रम अधिक करना पड़ता है। जिससे स्वास्थ्य ठीक रहता है। यहाँ का जीवन भी साधारण | होता है। शहर का जीवन इसके विपरीत स्वास्थ्यनाशक है । तिसपर यहां पर व्यभिचार भी अधिक होता है। इस कारण शहरों में रहने से जन संख्या का भी ह्रास होता है। क्योंकि ग्राम वासियों की जनसंख्या की वृद्धि शहरवालों से अधिक होती है। इसलिए जैनियों को ग्राम जीवन व्यतीत करने को उत्साहित करना चाहिए । इसके लिए उनके बालको को कृषि शास्त्रका ज्ञान कराना चाहिए, जिससे वह उसके ज्ञाता होकर नवीन प्रणाली पर ग्रामों में रहकर खेती करावे । स्वयं अधिक लाभ उठावें और देशको सुखी बनावें । अन्तिम कारण हमारे निरुत्साह का द्योतक है। हमने अपने वालकों को धर्म का ( यथार्थ मर्म समझाया नहीं । इस कारण वे अन्यधर्मी होजाते । खासकर ऐसे पुरुष ही अधिक होते हैं जिनका विवाह नहीं होता, अथवा जो जाति से पतित करदिए जाते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि धर्मका ज्ञान प्रत्येक जैनी बालक को छुटपन से कराना चाहिए। और जाति से अलहिदा करने का दण्ड उस अवस्था में दियेजाने का नियम करना चाहिए जब वैसा व्यक्ति धर्म और समाज के विरुद्ध बिल्कुल ही हो गया हो । मामूली बातों के लिये यह दण्ड नहीं देना चाहिए । दूसरे पतित पुरुषों को श्रनादर और श्रप्रेम की दृष्टि से नहीं Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखना चाहिए । उसके प्राचरणं यदि शुद्ध हो जाये तो उस उचित धर्माधिकार भी पालन करने दिए जायं। ऐसे पति लोगों की शुद्धाचरण सन्तानों को तो पूरी तरह से श्रावक वे पटावश्यक प्रादि का पालन करने देना चाहिए। ऐसा करने से जैनी विधर्मी नहीं होंगे और मन्दिरों में पूजा आदि को व्यवस्था भी उत्तम रहेगी। साथही इसके हमें अन्यलोगों में भी धर्मका प्रचार करना चाहिए। उनके लाभ के लिए पाठशा लाएं, औषधालय आदि खोलना चाहिये जिस से उनकी विश्वास हो कि जैनी हमारी भलाई करना चाहते हैं और जैन धर्म अच्छा है जो ऐसी शिक्षा देता है। तब उनको जैन धर्म जानने की इच्छा होगी और वे जैनी बनेंगे। फिर जिस जातिक वे मनुष्य हो उस जाति में वे सम्मिलित करलिए जावें । जैसे अजैन अग्रवाल अग्रवालों में, और जिनकी जाति को कोई न हौं उनकी अलग जाति वनजाय। ऐसे जैनियों को उचित रीति से पूजा श्रादि करने देना चाहिये। ___ इस प्रकार यदि ऊपर वताए हुए कारणों को हटाकर बताए हुए उपायों को कार्यरूप में परिवर्तित किया जाय तो जैन जाति की उन्नति होने लगे और जैनधर्म का प्रकाश चहुँ, ओर फैलजावे । तथैवं उसका हास होना रुक जावे । इन कारणों और उपायों का ज्ञान सर्वसाधारण को कराने की आवश्यक्ता है । अतएव आशा है,कि समाज के नवयुवक इस कार्य के करने के लिए मैदान में आवंगे और जाति के ग. मान्य संजन उनकी पूरी सहायता करेंगे। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा० दि. जैन परिषद् के पाक्षिक पत्र के ग्राहक बनिये 'वीर' का जन्म केवल आपके धर्म, आपकी समाज तथा आपके देश के लिए ही हुआ है। इसका एक मात्र नउद्देश्य दिगम्बर जैनधर्म का प्रचार और जैन समान की उन्नति करना है। 'वीर' सदैव संसार के नैन अजैन लेखकों व धुरन्धर कवियों की रचनाओं त्या नवीन समाचार गल्प आदि से विभूषित होकर नियत समय पर प्रतिपक्ष प्रकाशित होता है। . 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