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(५२) होता है। ऐसी अवस्था में भी एक ही जाति में विवाहसम्बन्धी करना शालसम्मत नहीं है। शास्त्रसम्मत तो यही है कि एक जाति के स्थान पर अन्य जातियों से परस्पर रोटी-बेटी व्यव हार किया जाय । इस विषय में केवल शास्त्रीय-श्रावकाचार! और श्रादिपुराण आदि प्रथमानुयोग की ही साक्षी मात्र प्राप्त. नहीं हैं प्रत्युत प्राचीन शिलालेखोंसे भीवहींप्रमाणित है कि पहिले इसी प्रकार वर्णों और पश्चात् जातियों मेंसंबन्ध होने थे। शिलालेखों की नकल उपरोल्लिलित पुलक में देखी जासकती। है। अतएव जब हमारे पूर्वज केवल अपने वर्ण की ही कन्याओं से नहीं बल्कि अन्य वर्गों को भी कन्याओं से विवाह करते थे तो आज श्रावश्यक्तानुसार उसका अनुकरण क्यो नहीं किया जाय ! ऐसा करने से जाति का लोप कभी नहीं होगा। जिस प्रकार दूसरे गोत्र में विवाह करने से गोत्र भेद नहीं मिटता है उसी प्रकार दूसरी जाति में विवाह करने से जाति भेद भी नहीं मिटेगा! - सामाजिक रीतिरिवाजो में वाह्य भेद भले ही हो परन्तु वैसे जीवन नियम करीव २ समान ही हैं। इसलिये परस्पर विवाह सम्बन्ध सर्व जातियों में होना आवश्यक है। इसमें यह भय करना कि धनिक जाति के लोग गरीव जाति की सव लड़कियाँ लेलेंगे और उस जाति को संख्या एकदम घट जायगी, दूसरे शब्दों में वृद्धविवाह और कन्याविक्रय को जायज करना है । अस्तु यह भय भयमात्र है। इससे समाज का शारीरिक वल भी बढ़ेगा। क्योंकि मानसशास्त्र के वेत्ता सप्रमाण इस बात को सिद्ध करते हैं कि यदि कोई राष्ट्र उन्नति करना चाहता है तो उसे अपने अपने वर्ण के मनुष्यों में अन्तर्जातीय और अन्तर-प्रान्तीय विवाह करना चाहिये ।