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________________ जैनधर्मजोकिएक वैज्ञानिक सर्वज्ञप्रणीतधर्म प्रमोणितहा है, उससे ज्ञात होता है कि इसी भारतवर्ष में एक समय वह । था जव यहां भोग भूमि अवस्थित थी, अर्थात् लोगों को अपने । जीवन निर्वाह के लिये प्रयत्न नहीं करने पड़ते थे और वेसुखी सुखी जीवन व्यतीत करते थे। इस समय किसी प्रकार के धर्म की भी व्यवस्था नहीं थी। जीयों की पुण्य प्रकृति क्षीण होने लगी और समय आगया कि उनका वह सुखमय जीवन नष्ट हो जाय । मनु वा कुलकर लोग अवतीर्ण हुए और वे मानवों को आवश्यकाओं की पूर्ति का मार्ग बताते गए।अन्ततःअन्तिम मनु नाभिराय और उनके पुत्र ऋषभदेव के समय पूर्णतया कर्म-युग का ज़माना गया था अर्थात् लोगों को विना उद्योग किये जीवन-निर्वाह करना कठिन होगया था। परन्तु जनता कर्मक्षेत्र के कर्तव्यों से अनमिक्ष थी। इसलिये विशिष्ट ज्ञानधारी राजकुमार ऋषभदेव ने उनको असि मसि आदि पटावश्यक जीवन कर्तव्यों का मार्ग सुझाया और मानवों को सुव्यवस्थित रखने के लिये उन्हों ने वर्णव्यवस्था स्थापित की, जिससे उनके लौकिक जीवन सुखमय व्यतीत होते रहें। आदिपुराण में वर्षों की उत्पत्ति के विषय में लिखा है कि जव भोगभूमि समाप्त हुई तब भगवान आदिनाथ ने प्रजाजनों को उनको भाजीविका के वास्ते असि, मसि, कपि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छः कर्म सिखाये । क्योंकि उस समय भगवान सरागी थे, वीतराग नही थे। उस ही समय भगवान ने तीन वर्ण प्रकट किये। जिन्हों ने हथियार वाँधकर रक्षा करने का कार्य लिया वे क्षत्री कहलाये, जो खेती व्यापार और पशु पालन करने लगे वे वैश्य हुए और सेवा करने वाले राष्ट्र कहलाये। (देखों पर्व १६ श्लोक १७६-१५)
SR No.010243
Book TitleJain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherSanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha
Publication Year
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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