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________________ जाति का निकास होते देखते हैं। साथ ही मनुष्यों के मध्य वर्ण व्यनस्था की स्थापना का भी दिग्दर्शन करते है। इसके विपरीत अन्य प्रकार से द्रव्य के यथार्थ रूप की अपेना जैन जाति और जैनधर्म अनादि से हैं और अनादि काल तक रहेंगे अतएव इस अनादिनिधन जैनधर्म के विपय में किञ्चित यह भी देखना शेष है कि पूर्व में उसकी दशा क्या रही है? भगवान ऋषभदेव के उपरान्त एक दीर्घ समय के अन्तराल से विविध तीर्थंकर और अन्य महान पुल्य होते रहे हैं। यह सव जैनधर्मानुयायी थे। परन्तु भगवान शीतलनाथ जी के समय ब्राह्मणों में शिथिलाचार प्रवेश कर गया था और वे अपने इस आचार की पुष्टि में अनार्ष अन्यों की रचना भी करने लगे थे। और आश्रय प्राप्त करने को संरनकभी उन्होंने अवश्य पा तिये थे। पश्चात् भगवान मुनिसुवृतनाथ के समय में यज्ञादि का निरूपण करके यह ब्राह्मण लोग आप धर्म से। प्रतिकूल हो गए थे। यहीं से प्राचीन रीति रिवाजों में पूर्ण, अन्तर पड़ना प्रारम्भ हो गया था। पश्चात् दोनों धर्म प्रयक प्रथक होकर अपने २ मतों का प्रचार करते रहे थे। अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर जी के समय तो कितनेक धर्मपन्य प्रचलित थे। इस समरा इतिहास प्रसिद्ध श्रेणिक-विम्बसार, अजातशत्रु, जीवंधर, जितशत्र, शतनीक चण्डप्रद्योत आदि राजा लोग जैनधर्मानुयायी थे। इस समय में भी प्राचीन रीति रिवाजों में कम अन्तर पड़ा था। जीवंधर कुमार के वर्णन से तो विवाह क्षेत्र की विशालता देख, आश्चर्य करना पड़ता है। कुमार जिस समय श्रेष्ठि के यहां भरणपोपण पा रहे थे उस समय तक तो नहीं किन्तु उपरान्त में विदेश यात्रा कर पाने के वाद ही, उनको अपने क्षत्री- राज-पुत्र होने का परिचय
SR No.010243
Book TitleJain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherSanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha
Publication Year
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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