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(२७) भी केवल चिठी पत्री लिखने तक' । पुपी में भी ऐसे बहुत फम है जो जीवन को आदर्श वनानेवाले, उच्च चरित्र बनाने गते.और जीवन सफल बनानेवाले साहित्य को पढ़ सके हो। यहां मान थोड़ा हिन्दी का पान और ढीचा पहाडे श्रादि सिवादिए कि शिक्षा खतम होगई। बहुत हुयी तो माल पाठ व पूजादि सिखा दी। नैतिक शिक्षा अथवा उस लौकिक मिजा हुपकों को दीही नहीं जाती! युवको को वह शास्त्र तथा साहित्य नहीं पढ़ाया जाता जिससे यह पुरयायी हो, जिससे वे रनवलं. पंचनवण, फायबल उपार्जन कर जातिगेवां, देश नेपा और विश्वसेवा के योग्य बने। जिससे वे धर्मप्रति, जाति' प्रति, देशभनि, संसार प्रति अपना कर्तव्य पहिचाने अथवा जिससे उनके जोधन "जैन" जीवन चनं । हाँ बाल्यावस्था
ओर गुपविणा में रंडियों का नाच दिखा, गानी सुना, नीच पुरुषों की संगति में छोड़ उनके जीवन निरर्थक, विषयी और विलासप्रिय तो अवश्य यनादिये जाते हैं। और इसका परिरणाम कहीं वेश्यागमन, कहीं परस्त्रीगमन, काही मदिरापान, कहीं स्वार्थीजीवन ओर कहीं व्यापार में झट इत्यादि होता है।
(जैन ससार)
जैनसमाज में इनेगिने विद्यालय ओर हाईस्कूल उच्च श्रादर्शशिक्षा प्रदान करने के लिये चाल भी किएंगए है, किन्तु उनसे यथेष्ट लार्म नहीं होता। इसमें मुख्य कारण उनको शिक्षा प्रणाली है। दोनों स्थानों से निकले हुए विद्यार्थी को मृत्यता स्वीकार करनी पड़ती है। अतएव उनमें शिक्षाकर्म का सुधार होना आवश्यक है, जिससे योग्य स्वावलम्बी विद्वान उत्प हो साइनमें जो समाज के धन से शिक्षा' पायें यह कम से'