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इनके साथ ही अन्य कारण व्यभिचार द्धि के उक्त अनमेल विवाह और पचपन'को "दुस्सइंति के अतिरित युती विववानी और युवाशुभारो की संख्या है। यह 'मानी हुई बात है कि काम जिरासमय मनुष्य को सताता है उस समय वह उस यो अन्धा कर देता है। आजकत की सोलाइटी का वातावरणे एसो फाय ओर बासना वर्धक हो रहा है कि यह अभाग'म. नुय काम की कुटिल चाल से बच नहीं पाते। इसो का परिगाम है कि नित्यति अणहत्याओं के समाचार सुनने में आने है । नीच जातियो से 'सत्संग करने पर बहुतेरे हमारे युग भाई दण्डित किए जाते हैं। यद्यपि उसी वृणित कार्य को करने वाले जाति के मुखिया और सत्तावान मनुष निदीप बने बैठे रहते हैं। वह हजार पाप करते दे तो भी धर्मात्मा बने रहते है और बेचारे गरीव युवक उनकी मार्याचारों में तड़पते है, दरिडत होते है। यह व्यभिचारी की मात्रा 'मामा को अपेक्षा शहरोरों अधिक है। और इसको कृपालेभी हमारी स्था घटी है, क्योंकि यह प्रगट है कि "व्यभिचारी सीपुरुषों के एफ तो सन्तान ही नहीं होती और यदि होती है त निर्वल, रोग और अस्पायु होती है । व्यभिचारी परंप स्वयं भी नियल, निस्तेज, साहसहीन, रोगी और अल्पायु होजाते हैं।
रोग तो उन्हें घरही रहते हैं। लिंबो की भी यही देशी होती है । इसबढ़ेहुऐ व्यगिदार को रोकने की और भी शो ध्यान देना चाहिए। चची के चरित्र पर छुटपन से ही बल्कि उनके गर्भ में आने के समय से ही ईष्टि रखनी चाहिए। बच्चे जंव माता के गर्भ में 'श्रीते हैं तभी से उनपर माता के र मरले विचारों का प्रभाव पड़ता है । यदि माता के विचार अच्छे होंगे तो बच्चे उन्हें अपनी प्रकृति बनाकर जन्म लेंगे।