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________________ DIRLIAMLwanrous. सम्मिलित है। और जैनधर्म का यह सिद्धान्त है कि समस्त लोकमें सूक्ष्म पुद्गल के परमाण भरे हुए हैं जिनमें यह विशेषता है कि वह भाव कर्म के प्रभाव से संसारी आत्मा की ओर खिंचते हैं और उससे बंध जाते हैं। और शुभाशुम भाव कर्म के अनुसार-उन परमाणओं में अपने समय पर आकर आत्मा को सुखदुख देने, औरआत्माकी अच्छी बुरी दशा करनेकी शक्ति उत्पन्न हो जाती है । श्रतएव आत्मा के साथ बंधे हुए इन सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं का नाम ही द्रव्य कर्म है। अब देखना चाहिये कि पुरुषार्थ किसको कहते हैं ? निश्चय में जो आत्मा कानिज शुद्ध स्वभाव अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य आदि है वह ही आत्मा का पुरुषार्थ है। और यही उत्कृष्ट है। परन्तु व्यवहार में आत्मा अपनीउन्नति,और अपनीसासारिक अवस्था अच्छी करने के लिये जो प्रयत्न करता है उसका नाम पुरुषार्थ है। और जव कि इन प्रयत्नों की जड़ भी रागपादि ही है तव वास्तव में संसारी आत्मा के शभाशुभ विचार अर्थात् भावकर्म ही पुरुषार्थ हैं। इसलिये जब कि- द्रव्य कर्म अर्थात् भवितव्य (तकदीर)-भाव कर्म अर्थात् पुरुषार्थ के अनुसार बंधती है यानी अच्छे विचार और अच्छे कर्म से अच्छी तकदीर बनती है। और बुरे विचार और बुरी क्रियायों से दुरी तकदीर बनती है।तब इस अपना कर कह सकते हैं कि तकदीर-पुरुषार्थ के आधीन है और पुरुषार्थ चड़ा है। परन्तु कुछ असावरों पर पूर्व संचित कर्म ऐसा प्रवल होता है कि वह उदय काल में मनुष्य के विचारों और क्रियायों पर अपना प्रभाव डाल कर उनको शुभप्रवृत्ति की ओर नहीं जाने देता। इस अपेक्षा से धर्म (भवितव्यता) को बड़ा कह सकते हैं: परन्तु ऐसी दशा में भी यदि मनुष्य प्रयत्न शुभ प्रवृत्ति की
SR No.010243
Book TitleJain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherSanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha
Publication Year
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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