Book Title: Jain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Sanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha

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Page 53
________________ ( ४६ ) " श्रौर जो न्यायवान है वह शुद्ध है' 1 ( लो० १४६ पर्व ३६ ) | इस कथन से किसी जाति वा धर्ण की अपेक्षाकृत शुद्धि प्रतीत नहीं होती। संभवतः यही कारण है कि पुरातन पुरुषों ने उक्त प्रकार से विवाह करने का नियम निर्धारित कर रक्खा था । और इस दृष्टि से तो भ्रूणहत्या श्रादि के रूप में हिंसा करने वा कगने के कारण स्वयं सारा समाज अशुरू हो रहा है । इसलिये यह उपाय शास्त्र के अनुकूल है और जाति की संख्या बढ़ाने का कारण है । इसका प्रयोग में थाना अत्यन्त श्रवश्यक है। यदि किन्ही भाई साहबों को प्राचीन आचार्यों के वचनों में श्रद्धा न हो और वे इस उपाय से अपने को अशुद्ध होता समझे तो इस प्रकार की व्यवस्था कर दी जाय कि ऐसे पुरुषों की एक जाति प्रथक रहे किन्तु सामाजिक अधिकारों के अतिरिक्त उनके धार्मिक अधिकार पूर्वक हो । इस उपाय द्वारा संस्था की वृद्धि होगी और व्यभिचार भी रुकेगा इस पर शांत चिंत्त से विचार करना श्रावश्यक है । यह शास श्रीर द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के अनुकूल है। इन्हीं का ध्यान हमारे पूर्वजों को रहा है जैसा कि हम प्रारंभ में देख चुके है कि इसी अपेक्षा कर रीतिरिवाज बदलते रहे हैं। इस का प्रचार करना अति लाभप्रद है । ग्यारहवाँ कारण छोटी छोटी जातियों का होना और अपनी जाति के अतिरिक्त अन्य जातियों में विवाह न करना है । जैनशास्त्रों के अध्ययन से यह पता नहीं चलता कि श्रमुक समय में अमुक तीर्थंकर वा श्रार्प पुरुष ने जाति व्यवस्था स्थापित की थी । सो भी किन नियमों पर १ जिस प्रकार लौकिक प्रयोजन के निमित्त भगवान ऋषभदेव द्वारा वर्णbयवस्था के स्थिर होने का उल्लेख है उसी प्रकार जाति के

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