Book Title: Jain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Sanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha
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( ५५ ) राध्यप्रान्त २५.५, मद्रास १०६, पंजाब ५३.३, और संयुक्तप्रांत ३६७ ।
इनमें मंद्रास और मध्यप्रांत ही ऐसे प्रान्त हैं जिनमें जैनी प्रामों में अधिक रहते हैं। यह भी एक कारण है कि वहाँ के जैनियों की संख्या बड़ी है, जैसे कि हम पहिले देखचुके हैं। बात यह है कि गाँव में रहने सेश्रम अधिक करना पड़ता है। जिससे स्वास्थ्य ठीक रहता है। यहाँ का जीवन भी साधारण | होता है। शहर का जीवन इसके विपरीत स्वास्थ्यनाशक है । तिसपर यहां पर व्यभिचार भी अधिक होता है। इस कारण शहरों में रहने से जन संख्या का भी ह्रास होता है। क्योंकि ग्राम वासियों की जनसंख्या की वृद्धि शहरवालों से अधिक होती है। इसलिए जैनियों को ग्राम जीवन व्यतीत करने को उत्साहित करना चाहिए । इसके लिए उनके बालको को कृषि शास्त्रका ज्ञान कराना चाहिए, जिससे वह उसके ज्ञाता होकर नवीन प्रणाली पर ग्रामों में रहकर खेती करावे । स्वयं अधिक लाभ उठावें और देशको सुखी बनावें । अन्तिम कारण हमारे निरुत्साह का द्योतक है। हमने अपने वालकों को धर्म का ( यथार्थ मर्म समझाया नहीं । इस कारण वे अन्यधर्मी होजाते
। खासकर ऐसे पुरुष ही अधिक होते हैं जिनका विवाह नहीं होता, अथवा जो जाति से पतित करदिए जाते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि धर्मका ज्ञान प्रत्येक जैनी बालक को छुटपन से कराना चाहिए। और जाति से अलहिदा करने का दण्ड उस अवस्था में दियेजाने का नियम करना चाहिए जब वैसा व्यक्ति धर्म और समाज के विरुद्ध बिल्कुल ही हो गया हो । मामूली बातों के लिये यह दण्ड नहीं देना चाहिए । दूसरे पतित पुरुषों को श्रनादर और श्रप्रेम की दृष्टि से नहीं

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