Book Title: Jain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Sanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha

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Page 19
________________ (१२) व्यवस्था में उच्च भाग लिये हो और उसके स्वान्वोंकीरता कर सकते हो। अथवा उनकी धाक-सभ्य संसार में जमी हो । नशिल्प और न वाणिज्य में ही उनकी प्रधानता है । सारांश में बह सव-तरह से हीन हो रही है और शारीरिक मानसिक एवं चारित्रक मनुष्य गुणों में करीव २ दिवाला निकाले ही बैठी हुई हैं। यही कारण है कि प्रति दश साल में पौन लास के करीब घट जाती है। तिस पर भी तुर्रा यह है कि उस में परस्पर मान सद के घोड़ों पर चढ़ व घुड दौड़ हुआ करती है। इसकी ऐसी दशा हो रही है कि यदि यह इस ही रूप में वनो रहो तो सौ दो सौ वर्ष में लोक से इसका अस्तित्व हो लुप्त हो जायगा। इसको जन सख्या किरा जी के साथ घट रही है यह जरा देखिये: , सन् १८४१ में वह कुत १४,९६,६३८ थी। . . सन् १९०१५. " १३,३८,१४०. " सन् १८११”, ''. १२,४८,१८२ " और सन् १९२१ में मात्र ११,७८००० रह गई है। इससे प्रकट है कि तीस वर्प में जैनियों की संख्या,दो लाख चालोस हजार घट गई है। जब कि भारतवर्ष की जन संख्यातीसवर्ष में सत्ताईस करोड़से बढ़ करवत्तोलकरोडो गई है। इस ज़माने में अन्यधोने उन्नतिको, पर जैनोघागर । यह जटिल प्रश्न उनके जीवन मरण का प्रश्न है। क्या कारण है कि अन्य भारतवासियों के साथ हो साथ उनकी संख्या भी नहीं बढ़ी जब कि हम देखते है कि अन्यों की संख्या वरादर बढ़ती रही है। जैसे कि भारत

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