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(१७) • आजकल सागारण तौरसे अनागार गुरुजनों के कर्तव्य को पूर्ति का भार हमारे गण्यमान्य संस्कृतत पडितों ने लिया है। परन्तु वह विशेष कारणवश निन्थ गुरु, अश्या उदासीन नि. श्रावक को माँति सामाजिक व्यवस्था लाने में असमर्थ हैं। उनको इतना अवसर ही प्राप्त नहीं है कि वह समय भारत के जैनियों को दशा का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त कर सकें और उसको उन्नति का उपाय शुद्ध हृदय से जनता को बता सके। प्रत्युत देखने में उनके कार्यों से यही प्रगणित होता है कि उनके द्वारा समाज का अनिष्ट किन्ही यातों में विशेष कर हो रहा है। एक खाल वा नो गह है कि वह बहुधा पराधीन एवं परमुलापेनी होने के कारण अपने निजी भानों को प्रकट भी नहीं कर सकते हैं। उनके विषय में वस्तुनः पूर्वाचार्य के निश्न शन्द याद आते हैं कि__, "गुरुपो भट्टा जाया सद्देशुणि अणा सितिदाणाई। दुरिणवि श्रमणि सारा दूसमयम्मि चुडन्ति ॥ ३१॥'
(उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला।) । अर्थात्-"पञ्चम काल विपै गुरु तो भार हो गए जो दा. ताओं की स्तुति कर दान लेते है । सो दाता और दान लेने घाले दोनों ही जिनमत के रहस्य से अनभिज्ञ है, ससार समद्र में डबते हैं। भावार्थ-दाता ते अपना भाव पोपने के अर्थ देता है और लेने गले लोभिष्ट हो दाता में अणछाते गुणों को भाट की तरह गाय दान लेते हैं। सॉ मिथ्यात्व कपाय के पुष्ट होने से दोनों हो ससार में उपते है और पञ्चम काल में,कहने की. अभिप्राय यह है कि जो इस प्रकार दान लेनेवाले अन्य मत में ब्राहण तो पहिले से भी थे, परन्तु अब जिनमन में भी भाट. की तरह स्तुति करा पार दान लेने वाले हो गये है, सो इस