Book Title: Jain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Sanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha

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Page 27
________________ ( २०) अतरव वह आबोहवा का ध्यान भी कम रख रहे है। और आहार को भी यही नौवत है। भक्ष्यानन्य का विचार उनमें से उठ ही गया है। इने गिने हो लोग ऐसे हैं जो बाज़ार की भव्य नस्तुश्रो से परहेज करते हैं। और पदार्थों के गुण दोप का विचार करके उसका भक्षण करते हैं। हमारे पाँच सात घरों में भोजनको व्यवस्था किंचित है भो, परन्तु यहाँ पर भी पाकशास्त्रसे अनभिनता होने के कारण सात्विक भोजन का मिलना कठिन हो रहा है। मोजल के चटपटे और सुस्वाद बनाने की और विशेष ध्यान दिया जाता है, फिर चाहे भलेही मसालोको भरमार से उस पदार्थ का स्वाजाविक गुण नष्ट हो जावे। इस प्रकार पाहार का मो हमारे यहाँ ठीक प्रवन्ध नहीं है । श्रव जव कि हमारे भोजन की यह दुर्दशा है तब हमारे जीवन किस प्रकार के होगे यह सहज में अन्दाजा जा सकता है। लोकोक्ति हो इस बात को चरितार्थ कर रही है जैसा खावे अन्न-वैसा होवे मन । इसलिये कहना होगा हमारेजीवन पापमय है। इस को पुष्टि हमारे अगाड़ी के वर्णन से स्वत हो जावेगी। अतः जब हमारे रहने के स्थान की धागेहला, शरीर पुष्टि का भोजन और जीवन हो प्राकृतिक नियम के प्रतिकृल हैं तय हमारा प्रतिद्वन्द्वी दैव ही हो जाय तो आश्चर्य क्या है ! प्लेगादि रोगों से जैन जाति की क्षति अधिक नहीं होनी चाहिये क्योंकि रोग से बचने के साधन उनको सुगम थे। परन्तु जड़ता के कारण जैसे कि ऊपर दिखला चुके हैं, इस सक्रामक रोग आक्रमण से भी उसकी क्षति में सहायता पहुंची है । इन रोगों में वृद्धों की अपेक्षा युवक और युवतियां अधिक मृत्यु को प्राप्त हुए है। दुख यही है कि इन्हींले सन्तान उत्पन्न होती है जिससे जनसंख्या को वृद्धि

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