________________
(१८) निकृष्ट काल में ही हुयेहे।" ऐसी दशा में पाठक समझ सकते है कि निप्पन, निःस्वार्थी गुरुओं अथवा मार्गप्रदर्शकों की फितनी जटिल आवश्यकता है।
दूसरा कारण मनुष्य गुणों का अभाव कितना हानिप्रद है, यह समाज की वर्तमान दशा से ही ज्ञात है। इसके विषय में भी हम पहिले कह चुके है। अतएव इसके निवारण का उपाय भी कितनेक अशो में प्रथम कारण के अभाव की पूर्ति के साथ सम्बन्धित है। क्योंकि जब प्रथम अभावकी पूर्तिहोकर मनुष्यों के जीवन धर्ममय वन जायगे तो उनकी शारीरिक, मानसिक
ओर चारित्रक उन्नति होना अवश्यभावी है। और इस उन्नति के होने के साथ ही उनमें मनुष्य जैसे गुण स्वतः आजायेंगे। अतएर इस अभाद को पूर्ति का भी उपाय प्रथम के प्राधीन है यद्यपि निम्न कारणों के उपाय भी इसमें सहकारी होंगे। इस लिये इन दोनों उपायों से लाभ उठाने के लिये आवश्यक है कि समाज के विद्यमान संयमी पुरुष एकान्त में रहने के स्थान पर कार्यक्षेत्र में पाये और प्रत्येक प्रान्त में ग्रामवार पर्यटन करें और स्थानीय जैन जनता की देखभाल के लिये वयमाप्त अनुभवी चारित्रवान प्रभावशाली व्यक्ति को संयममार्ग का स्वरूप समझाकर उस ओर अग्रसर करें। इस उपाय को पूर्ति में सहज ही में समाज उन्नति के राज्यमार्ग पर पाजावेगी और शीघ्र ही उसके हास के कारण दूर हो जायेंगे।
तीसरा कारण जैनजाति के हास में दैवी प्रकोप भी प्रमा. णिव होता है। अर्थात् उसमें प्लेगादि रोगों के भयावह परि णाम से भी हानि उठानी पड़ रही है। परन्तु यहां भी हम देव को कोस कर ही चुप नहीं रह सकते। इस देवी प्रकोप की उत्पत्ति का कारण किसी जीवन नियम का उल्लंघन करना