Book Title: Jain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Sanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha

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Page 21
________________ श्रापको संख्या तो उगलियों पर गिनने योग्य है। इसलिये मृत्यु के मुख से बचना है तो आलस्य को छोड़िये, जड़ता को त्यागिये, हियेकी खोलिये और अपनेधर्म-धर्मको पहिचानिये। बहुत सो चुके, ज़माना बदल गया, शरीर में धुन लग गया, मरणासन्न हो गए! श्रव भी चेत जाइये और इन अगाड़ी बतलाए हुए कारणों को शीघ्र ही दूर कर दीजिए। जग गोर, कर देखिए कि वह किस भयानक रीति से आपके जीवन तन्तुओं को भक्षण कर रहे हैं! जैनसमाज के द्वास के कारण एक नहीं, दो नही, किन्तु अगणित हो रहे हैं । इसलिये प्रत्येक मनुष्य उनका दिग्दर्शन करा भी नहीं सकता। उनका पूर्ण दिग्दर्शन तो प्रत्येक जैनो भाई एकान्त में बैठ कर निश्चल हृदय से स्थानीय दशा का अवलोकन कर अनुभव कर सकते हैं । यह रोग अाजका नहींकल का नहीं, प्रत्युत एक दीर्घ काल से समाज के मध्य घुसा है। यह राज्यरोग है। इसको परीक्षा और उपचार सुयोग्य अनुभवी वैद्यों के वश है। परन्तु समाज की दशा से परिचित ओर दुखित नवीन ह्रदय भी अवश्य ही इस ओर प्रकाश डाल 'सकते हैं। अतएव कहना होगा कि यद्यपि जैन समाज भारत के विविध प्रा.तो में वसा हुआ है, इस कारण प्रान्त भेद से उनके रोतिरिवाजों में भी अवश्य अन्तर पड़ा हुआ है। किन्तु उनके ह्रास के कारणों में अधिक अन्तर नहीं है। यह प्राय ऐकही से हैं तो भी यह सभव है कि एक प्रान्त में एक खास कारण से जैनियों का हास हुआ हो तो दूसरे प्राप्त में उसके विपरीत किसी अन्य कारण से वही नौवत मसीव हुई हो। इसलिये समग्र जैनसमाज के हास के कारण साधारणतः एक समानही होना सभवित होते है।

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