Book Title: Jain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Sanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 20
________________ M OR ma + ६३३ ।' की संख्या के उक्त अंको से और अन्य धर्मों के निम्न कोष्ठक से विदित है: सन् १८४१ से १९०१ को सन् १९०१ से १९११ तक धर्म । जनसंख्या में प्रतिरात | जनसरया में प्रतिशत घटना या बढ़ना। घटना तया बढना । बौद्ध + ३२६ बढ़ना १३१. वना ईसाई } + २८ ५ +३२६ ". सिख १५ मु०मा० +8 *६७ " . हिन्दू । -३ घटना + १५.०४ " जैनी - ५२ " -६४ घटना इस कोष्टक से साफमकर है कि १६०१ ६० ले १६११० तक के दस वर्षों में कुल भारतवालो११८ प्रति सैकडार कुल हिन्दू १५.०४ प्रति लैकडा बढ़े, परन्तु अभागे जैनो ६४ प्रति सैकड़ा कम हुए। जैनी भी अन्य भारतीयों को भांति बढ़ने चाहिये थे परन्तु उनको उल्टो वास्तविक घटी १८३ प्रति सैकड़ा हुई है। हमारी यह दशा हमारे कान खड़े कर देने के लिये पर्याप्त है किन्तु दुःख है कि अब भी हम इस ओर से अचेत पड़े है। और पुराने ढर में पड़े हुए इसी तरह पिस, जाना पसन्द कर रहे हैं । हमे मालूम है कि हमारे शरीर में धुन-लग रहा है और वह बहुत तेजी के साथ हमारे जीवन का अव कर रहा है परन्तु तो भी हम उस धुन को निकालने के लिये करिबद्ध नहीं है। मोइयो याद रखिये कोई जाती कितनाही बडो-करोडो को संख्या की क्यों न हो, वह भीइल वेढनी रकार से एक दिन नष्ट हो जावेगी। कदापि जीवित नही रह सकती। तिस पर

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64