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(६) सघश देशभक्त और तेजपाल वस्तुपाल सदृश दानी धावक थे। तथैव कुन्दकुन्दाचार्य और समन्तभद्राचार्य सदृश निग्रंथ महाविद्वान आचार्य थे। इन्होंने ही जैनधर्म को गौरव गरिमा को दिगन्त व्यापिनी बना दिया था । जिसको शाती आज भी उन के शिल्प के अद्भुत कार्य और अतुल साहित्यरत्न है । परन्तु दुःख है कि आज वह नररत्न जैनधर्म की प्रमाचना चढ़ानेको प्राप्त नहीं हैं। आज जनजाति जीवित जातियों में नहीं गिनी जाती। आज चारों ओर से अपमान २ की ही बौछारें उसके ऊपर पड़ रही है। वह प्रति वर्ष बड़े वेग के साथ घटती चली जाती है। इन सब हताश करने वाली बातो का उत्तर पानेके लिये हमको देखना चाहिये कि हमारे पूर्वजों में क्या गुण थे जो वे उतने उन्नत और सुख समृद्धशाली थे।
हमारे पूर्वजों में पहिली बात तो यह थी कि उन में धर्म के चारों संघ-मुनि, आर्यिका, श्रागक, श्रानिका-गिद्यमान थे। इसलिए धर्म को पूर्ण उन्नति थी। और उसके महत्व एनं. कर्तव्यों को ला समझे हुए थे। मुनि ओर आर्यिका संघ के कारणं श्रावकों के जीवन धर्मनिष्ठ बने रहते थे। उनका धार्मिक शान उन महान आत्माओं के संसर्ग से सदैव उन्नत होता रहता था जिसके कारण उनको आत्माएँ वलवान रहतो थी और वे लौकिक एवं पारिलौकिक दोनों कार्यो को दृढ़ता के साथ कर सकते थे। उनकी ज्ञानवृद्धि और पुण्योपार्जन के साक्षात् कारण अनागोरगण विद्यमान थे। जिनका कि आज बिल्कुल अभाव ही है। भारत में धर्म ही सर्व उन्नतियों का मूल कारण माना गया है। तिसके प्रचार और संभाल के कारण उनमें मौजूद थे। अतएव सुखसमृद्धशाली दशा को माप करने के अन्य कारण भी अवश्य हो उनको उपलव्ध थे।