Book Title: Jain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Sanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha

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Page 16
________________ वह आता जारहा है कि सर्व वस्तुएँ हेय होकर हास को प्राप्त होतो जॉचगी। और अन्त में नष्ट हो जॉयगी यह स्वाभाविक अमिट वान है इस पर दुख किस बात का! संसार के और जन जाति के जो उदय में है वही होगा। उसके विपरीत हो नहीं समता! पुरपार्थ करने से कोई विधि की मेख को पलट नहीं सकता। इस व्याख्या के उत्तर में मैं अपने ऐसे मान्य मित्र से पूछेगा कि यह ज़माने का हास क्रम क्या केवल जैनियों के ही पल्ले पड़ा है ? क्या कारण है कि ईसाई, आदि विधी सर्व प्रमार की उन्नति कर रहे है और जैनधर्म इस गति से होन होता जारहा है कि कठिनता से पूरे २०० वर्ष तक वह अपना अस्तित्व ही स्थिर रख सके ? तिस पर जैन शास्त्रों में स्वयं कहा है कि पंचम काल के अन्ततक जैनधर्म रहेगा। यद्यपि जुगनू की मांति लुप्न और प्रकट होता रहेगा। इस अपेनाले भी जैनधर्म वा जाति का हास देवी नहीं माना जा सकता । और इस कारण उसके उद्धार केनिमित्त हाथ पर हाय धर कर भी नहीं बैठा जा सकता । जो सजन भवितव्य को सब कुछ समझ कर इस शोर पुरुषार्थ करना हेय बतलाते है वह अपने भनितव्यता के दृढ विश्वास में कभी भी अपने दैनिक जीवन को उसके प्राधीन नहीं छोड़ देते ! यही तर्क उनके विश्वास को लचर प्रमाणित करती है। बात यह है कि ऐसे सजन का और पुरुषार्थ के यथार्थ रूप और सम्बन्ध ले अनभिन्न है। जैनसिद्धान्त' की अपेक्षा कर्म दो प्रकार का रोला है-(३) इन्य (२) और भाव कर्म आत्मा के परिणामों का नाम भाव कम है। और वचन एवं काय की क्रिया का नाम दिया है। किन्तु यह वचन और काय की क्रिया मन के शुभाशुस विचारों के आधीन है। इसीलिये यह भी भार कर्म में

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