Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 10 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 5
________________ अङ्क १-२] उपासना-तत्त्व। यह हुआ कि मैं अब तक इस संसारमें जैनियोंको आमतौर पर, अपना उपासनादुःखोंका ही पात्र रहा-मुझे दुःखोंसे तत्त्व समझने और समझकर तदनुकूल छुटकारा ही न मिला-क्योंकि भावशून्य बर्तनेकी बहुत बड़ी ज़रूरत है। इसी क्रियाएँ फलदायक नहीं होतीं। ज़रूरतको ध्यानमें रखकर आज इस लेख एक दूसरे प्राचार्य लिखते हैं कि, द्वारा, संक्षेपमें, उपासना-तत्त्वको समबिना भावके पूजा आदिका करना, तप झानेका यत्न किया जाता है। इससे तपना, दान देना, जाप्य जपना-माला हमारे वे अजैन बन्धु भी ज़रूर कुछ लाभ फेरना-और यहाँ तक कि दीक्षादिक उठा सकेंगे जिन्हें जैनियोंके उपासनाधारण करना भी ऐसा निरर्थक होता है तत्त्वको जाननेकी आकांक्षा रहती है, जैसा कि बकरीके गलेका स्तन । अर्थात् अथवा जैनसिद्धान्तानभिज्ञताके कारण जिस प्रकार बकरीके गलेमें लटकते हुए जिनके हृदयमें कभी कभी यह प्रश्न उपस्तन देखने में स्तनाकार होते हैं परन्तु वे स्थित हुआ करता है कि जब जैन लोग स्तनोंका कुछ भी काम नहीं देते-उनसे किसी ईश्वर या परमात्माको जगत्का दूध नहीं निकलता-उसी प्रकार विना कर्ता हर्ता नहीं मानते और न उसकी भावकी पूजनादि क्रियाएँ भी देखनेहीकी प्रसन्नता या प्रसन्नतासे किसी लाभ क्रियाएँ होती हैं, पूजादिका वास्तविक तथा हानिका होना स्वीकार करते हैं तो फल उनसे कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। फिर वे परमात्माकी पूजा, भक्ति और यथाः उपासना क्यों करते हैं और उन्होंने उससे भावहीनस्य पूजादितपोदानजपादिकम् । क्या लाभ समझ रक्खा है ? इस प्रश्नका व्यर्थ दीक्षादिकं च स्यादजाकंठे स्तनाविव ॥ समाधान भी खतः नीचेकी पंक्तियोंसे हो जायगाःइससे स्पष्ट है कि हमारी उपासना जैनधर्मका यह सिद्धान्त है कि यह सम्बन्धी क्रियाओंमें भावकी कितनी बड़ी ज़रूरत है-भाव ही उनका जीवन और आत्मा जो अनादि कर्ममलसे मलिन हो भाव ही उनका प्राण है, विना भावके रहा है और अपने स्वरूप को भुलाकर उन्हें निरर्थक और निष्फल समझना विभाव परिणतिरूप परिणम रहा है वही चाहिये। परन्तु यह भाव उपासना-तत्त्व उन्नति करते करते कर्ममलको दूर करके को समझे विना केसे पैदा हो सकता है? परमात्मा बन जाता है; आत्मासे भिन्न अतः अपनेमें इस भावको उत्पन्न करके और पृथक् कोई एक ईश्वर या परमात्मा अपनी क्रियाओंको सार्थक बनानेके लिये नहीं है-अहंत, जिनेन्द्र, जिनदेव, तीर्थंकर, सिद्ध, सार्व, सर्वश, वीतराग, परमेष्ठि, है वैसे ही जिनेन्द्रके हृदयस्थ होने पर कर्म काँपते हैं। परंज्योति, शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार, क्योंकि जिनेन्द्र कौका नाश करनेवाले हैं। उन्होंने अनो प्राप्त, ईश्वर, परब्रह्म इत्यादि सब उसी आत्मासे कमौको निर्मूल कर दिया है। इसी प्राशयको परमात्मा या परमात्मपदके नामान्तर प्राचार्य कुमुदचन्द्रने निम्नलिखित पद्यमें प्रकट किया है: - हैं। अथवा दूसरे शब्दोंमें यो कहिये कि, हृद्वतिनि त्वयि विमो. शिथिलीभवन्ति, परमात्मा श्रात्मीय गुणोंका समदाय है. जन्तोः क्षणेन निविडा अपि कर्मबन्धाः। सद्यो भुजंगममया इव मध्यभाग उसके अनन्त गुणोंकी अपेक्षा उसके मभ्यागते बनशिखंडिनि चंदनस्य ॥ अनन्त नाम हैं। वह परमात्मा परम -कल्याणमन्दिर। वीतरागी और शान्तस्वरूप है, उसको Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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