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* जैन-गौरव-स्मृतियां *Serse
वाले नर, पशु या पक्षी के प्राणों की परवाह न करता हुआ अपने भौतिक * अभ्युदय को महत्व देता है। वह वेदविहित हिंसा को हिंसा नहीं मानता है । इस ... तरह वह हिंसा का अमुक सीमा तक समर्थन करता है । इसके विरुद्ध जैन
परम्परा हिंसा का किसी भी रूप में समर्थन नहीं करती है। वह दृढता के साथ अहिंसा का पालन करने पर भार देती है। किसी भी निमित्त से की जाने वाली हिंसा को वह क्षन्तव्य नहीं मानती है। उसकी सब जीवों के प्रति साम्य दृष्टि होने से वह मनुष्य या पशु पक्षी की तो क्या वनस्पति, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के सूक्ष्मातिसूक्ष्म जन्तुओं तक की हिंसा को क्षन्तव्य नहीं मानता है । ब्राह्मण और श्रमण : ( जैन ) संस्कृति का यह पारस्परिक मुख्य विरोध है । इस तीव्र विरोध के कारण दोनों संस्कृतियों में संघर्ष की . मात्र सम्भावना ही नहीं किन्तु तीन संघर्ष भूतकाल में भी हुआ और वर्तमान
में भी यह विरोध का वीज निमूल नहीं हुआ है । यह विरोध प्राचीन ब्राह्मण काल में भी था और बुद्ध एवं महावीर के समय में तथा इसके बाद भी रहा है । इस लिए महाभाष्कार पंतजलि ने शाश्वत विरोध के अहिन्कुल गो व्यान्न जैसे द्वन्दों के उदाहरण देते हए साथ ब्राह्मण-श्रमण भी कह दिया है। इससे दोनों संस्कृतियों के उस काल के पारस्परिक तीव्र संघर्ष की सूचना मिलती है।
जैन संस्कृति प्रवलता के साथ अहिंसा का प्रचार एवं प्रसार करती __ . आई है । संसार और प्रधानतया भारत के वातावरण में व्याप्त हिंसा को - दूर करने के लिए यह संस्कृति सदा से प्रयत्न करती.आई है। भगवान् ... महावीर ने हिंसा के विरुद्ध तीन क्रान्ति की और अहिंसा की भव्य प्रतिष्ठा - का। अहिंसा के सिद्धांत पर और उसके अनुसरण पर जैन संस्कृति अत्यन्त
मार देती आई है इसलिए वह अहिंसक संस्कृति के रूप में विश्व भार में विख्यात है । दूसरे स्पष्ट शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जैन संस्कृति अर्थात् अहिंसक संस्कृति और अहिंसक संस्कृति अर्थात् जैनसंस्कृत । जैनधम
और अहिंसा एक दूसरे में ओत-प्रोत है । ... भगवान महावीर स्वामी ने हिंसा के विरोध में जो प्रवल आन्दोलन किया किया उसका ब्राह्मण संस्कृति पर गहरा असर हुआ। इसके सम्बन्ध म आचार्य आनन्दशंकर ध्रुव ने इस प्रकार कहा है:- "वेदविहितं यज्ञीय हता को तोड़ कर औपनिषद, भागवत और पंचयज्ञानुष्ठान के धर्म ने