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* जैन-गौरव-स्मृतियां
अहिंसा का महान सिद्धान्त अहिंसा का महान् सिद्धांत-जो आज विश्व-शांति का सर्वोत्तम साधन समझा जाने लगा है, जैनधर्म के उन्नायकों के द्वारा ही सर्व प्रथम विश्व के सामने प्रस्तुत किया गया है। जैनधर्म की यह महान देन है, जो उसने विश्व को प्रदान की। अहिंसा के कल्याणकारी सिद्धान्त के प्रचारक और प्रसारक के रूप में जैनधर्म का यशगौरव सदा अक्षुण्ण रहेगा।
अहिंसा, वह निर्मल मन्दाकिनी है। जिसकी पवित्र और शीतल धारा पाप के ताप को नष्ट कर देती है। अहिंसा, वह अमृत की कनी है जो भीषण भव-रोग को निर्मूल कर देती हैं । अहिंसा, वह मेध-धारा है जो दुःख-दावानल को शान्त करती है। अहिंसा वह जगज्जननी जगदम्बा है जो जगत के जीवों की रक्षा करती है। अहिंसा वह भगवती है जिसकी आराधना से . जगत् के जन्तु निर्भय और सुखी हो सकते हैं।
जैनधर्म में, आत्मस्वरूप की प्राप्ति का सबसे प्रधान साधन अहिंसा का आराधना मान गया है । जो प्राणी जितने अंश में अहिंसा की आराधना करता है उतने ही अंश में शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त करता है। वीतराग
आत्मा अहिंसा की उच्चतम कोटि पर पहुंचे हैं इसलिए वे शुद्ध आत्मस्वरूप में अवस्थित रहते हैं । व्यक्ति के जीवन में अहिंसा जितनी गहरी उतरी हुई होती है वह उतना ही आत्मिक दृष्टि से विकसित होता है । जो व्यक्ति जितनी हिंसा करता है या हिंसक भावना रखता है वह आत्मिक दृष्टि से उतना ही हीन होता है।
संसार के सब प्राणी जीवन के अभिलाषी हैं। सब को जीवन प्यारा है। कोई मरना नहीं चाहता सब मृत्यु से डरते हैं। सब सुखी रहना चाहते हैं। कोई दुःख नहीं चाहता मरने से दुःख होता है. इसलिए कोई मरना नहीं चाहता । प्रत्येक प्राणी अपने जीवन को सबसे अधिक अनमोल मानता है। सब प्राणियों को जीने का समान अधिकार है। यह जान कर किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिये। उसके प्राणों का हरण नहीं करना चाहिये, इतना ही नहीं परन्तु उसे किसी तरह का शारीरिक या मानसिक कष्ट न पहुँचाना चाहिये । यह अहिंसा की हिंसा-निवृत्ति रूप व्याख्या है।