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*जैन-गौरव-स्मृतियां
अधिकार है उसी प्रकार धर्म और ईश्वर की आराधना का अधिकार भी प्राणिमात्र को है । धर्म किसी की ठेकेदारी की वस्तु नहीं है । वह किसी की पैतृकसम्पत्ति नहीं है। वह तो सबका है और सब उसके हैं। धर्म और ईश्वर किप्ती की जातपाँत को नहीं देखते । जो लोग धर्म और ईश्वर की पवित्रता के नाम पर मानव जाति के किसी वर्ग को धर्माराधन एवं ईश्वराराधन से वलात् वञ्चित रखते हैं वे ईश्वर और धर्म के द्रोही हैं और साथ ही समाज के द्रोही भी हैं । नीचों को ऊँचा उठाना, अपवित्रों को पवित्र वनाना, यही तो धर्म का कार्य है। यदि नीचों को ऊँचा उठाने में अपवित्रों को पवित्र बनाने में धर्म अपवित्र हो जाता है तो वह धर्मही किस काम का है ? यदि अछूतों के छू लेने से और उनके दर्शन कर लेने से भगवान् अपवित्र हो जाते हैं तो ऐसे भगवान दूसरों को क्या पवित्र कर सकते हैं ? वस्तुतः यह भगवान और धर्म की ओट में अपने स्वार्थों को पोषण देने की योजना मात्र है । यह जातिवाद मानवता के लिये कलंक रूप है । अतः इस मिथ्याभिमान को दूर कर मानव मात्र को गले लगाना चाहिए।"
भगवान् महावीर ने यह भी संदेश दिया कि "घृणा पापों से होनी चाहिए पापियों से नहीं । मनुष्य घृणा का पात्र नहीं है । उसके दुष्कर्मों के प्रति घृणा होनी चाहिए परन्तु उसके प्रति नहीं । पापियों के प्रति घृणां न करते हुए उन्हें प्रेम के साथ पापकर्मों से छुड़ाने का प्रयत्न करना चाहिए। धर्म तो पतित-पावन है । वह पापियों और पतितों का उद्धार करने वाला है। यदि पापियों से या पतितों से घृणा की जाती है तो उनके उद्धार का मार्ग ही कौनसा रह जाता है ? अतः जैनधर्म यह संदेश देता है कि पापियों और पतितों से घृणा न करो। सद्भावना के द्वारा उनके हृदय का परिवर्तन करो। जो धर्म पापियों के प्रति भी घृणा न करने का संदेश देता है वह धर्म किसी मानव को अछूत कैसे समझ सकता है ? अतः जैनधर्म की दृष्टि में कोई भी मानव अस्पृश्य नहीं है । जैनधर्म स्पृश्यास्पृश्य के भेद से ऊपर उठा हुआ है।
भगवान् महावीर के समवसरण (व्याख्यान सभा ) में श्रोताओं के लेये कोई भेदभाव नहीं था । सब वर्ग और जाति के लोग समान रूप से साथ साथ बैठकर उनके उपदेशामृत का पान करते थे। मनुष्य तो क्या पशु