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जैन-गौरव-स्मृतियाँ *
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तथा पुत्रों को भी छोड़ २ कर अपनी २ रक्षा के लिए भागने लगे। जिन सम्पूर्ण सामग्रियों को ले जाने का कोई उपाय उनकी दृष्टि में न आया अन्त में उनमें आग लगाकर चले गये। अत्याचारी औरंगजेब हृदय पर पत्थर को बाँधकर निराश्रय राजपूतों के ऊपर पशुओं के समान आचरण करता था । आज उन लोगों के ऐसे सुअवसर को पाकर उस दुष्ट को उचित प्रतिफल देने में कुछ भी कसर नहीं की । संघवी दयालदास ने हिन्दुधर्म से वैर रखने वाले बादशाह के धर्म से भी पल्टा लिया । काजियों के हाथ पैरों को बाँधकर उनकी दाढीमूछों का मुंडा दिया और उनकी कुर्रानों को कुए में फेंक दिया । दयालदास का हृद्य इतना कठोर होगया था कि उन्होंने अपनी सामर्थ्य के अनुसार किसी भी मुसलमान को क्षमा नहीं किया। तथा मुसलमानों के राज्य को एक वार मरूभूमि के समान कर दिया। इस प्रकार देशों को लूटने और पीड़ित करने से जो विपुल धन इकट्ठा किया, वह अपने स्वामी के धनागार में दे दिया और अपने देश की अनेक प्रकार से रक्षा की। विजय के उत्साह से उत्साहित होकर तेजस्वी दयालदास ने राजकुमार जयसिंह के साथ मिलकर चित्तौड़ के अत्यन्त ही निकट बादशाह के पुत्र अजीम के साथ भयंकर युद्ध करना आरम्भ किया। इस युद्ध में राठौड़ और खीची वीरों की सहायता से वीरवर दयालदास ने अजीम की सेना को परास्त कर दिया । पराजित अजीम प्राण बचाने के लिए रणथंभोर को भागा । परन्तु नगर में आने के पहले ही उसकी बहुत हानि हो चुकी थी. क्योंकि विजयी राजपूतों ने उसका पीछा करके उसकी बहुत सी सेना को मार डाला था। जिस अजीम ने एक वर्ष पूर्व चित्तौड़ नगरी का स्वामी वन अकस्मात् उसको अपने हाथ में कर लिया था, आज उसका उचित फल दिया.गया । . - संघवी दयालदास युद्ध करने में अपने शत्रु के प्रति जितने कठोर थे उतने ही युद्धोपरान्त शरण में आये हुए के प्रति उदार थे। वे बडे प र थे । धार्मिक नित्यक्रिया में कभी नहीं चूकते थे। आपने राजसमुद्र के पास
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**यह उद्धरण 'योसवाल जाति का इतिहास पृ० ७५ से उद्धृत किया गया है जो इसके लेखकों ने टॉड राजस्थान द्वितीय खएद अध्याय १२ प ३९६-8 से