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जैन-गौरव-स्मृतियाँ ★
तोरण बनवाकर इस्लाम के पांक-धाम मका शरीफ को अर्पण किया था। अपने धर्म में अत्यन्त चुस्त होते हुए भी अन्य धर्मों के प्रति ऐसी उदारता बताने वाला, अन्य धर्मस्थानों के लिए इस ढंग से लक्ष्मी का उपयोग करने वाला उसके समान अन्य कोई पुरुप भारतवर्ष के इतिहास में मुझे तो दृष्टिगोचर नहीं होता । जैनधर्म ने गुजरात को वस्तुपाल जैसा असाधारण सवधर्मसमदशी और महादानी महामात्य का अनुपम पुरस्कार दिया है"
उक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि दक्षिण में श्री शैल (श्री पर्वत काँची के पास ) पश्चिम में प्रभास, उत्तर में केदार और पूर्व में काशी तक में कोई भी देवालय कोई भी धर्म या विद्या की संस्था ऐसी न थीं जिसे वस्तुपाल-तेजपाल की बादशाही सहायता न मिलती हो । सोमेश्वर महादेव के मन्दिर में प्रतिवर्ष दसलाख और काशी के विश्वनाथ के मन्दिर में प्रतिवर्ष एक लाख की भेंट चढ़ाई जाती थी । हिन्दुस्थान में पवित्र गिना जानेवाला और जाननेयोग्य ऐसा कोई स्थान या संस्था न थी जहाँ वस्तुपाल-तेजपाल की सहायता न पहुँची हो। इससे इन महामात्यों की दानवीरता का परिचय मिलता है।
तीर्थकल्प में जिनप्रभसूरि ने वस्तुपाल संकीर्तन में बताया कि सवा लाख जिनयिम्ध कराने में शत्रुजय तीर्थ में १८ क्रोड़ छियानवे लाख, गिरनार तीर्थ में १२ क्रोड ८० लाख, आबू की लगवसहि में १२ क्रोड ५३ लाख खर्च किये । उसने ६८४ पौषध शाला, ५०० दन्तमय सिंहासन, ५०५ समवसरण. ७०० बाहारगशाला, ७०० सत्रागार ( दानशाला), १०. मठ बनवाये । ३००२ शिवायतन, १३०४ शिखर-बंध जैन प्रासाद, २३०० जीर्ण चैत्योद्धार, किये । अठारह कोड़ के व्यय से तीन बड़े २ सरस्वती भण्डार स्थापित किये । ५२८ प्रात्मरणों का वेदपाठ सदा चलता रहता था। वर्ष में तीनवार वह संघ पूजा करता था । उसके यहाँ उद हजार तटिक कापटिक भोजन करते थे। उसने तेरह तीर्थयात्राएँ संघपति बनकर की थी। उसने २४ तालाब बंधवाये, ४३४ से अधिक कुएँ वाडियों. ३२ पापागमय किले.
२४ दन्तमय सनरय, २००० साग क रथ कराये । मसजिद बंधवायी। - सब मिलकर ६०० मोड़, ११ लाख १८ हजार श्राट मी द्रव्य व्यय किये।