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★ जैन- गौरव स्मृतियां.
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सम्यग्दर्शी आत्मा धर्म रूपी रत्न का पाररवी होता है । वह दुनिया में प्रचलित मत, सम्प्रदाय, मजहब आदि की अपने विवेक से परीक्षा करता है । अपनी कसौटी पर जो खरा उतरता है वही धर्म वह स्वीकार करता है । धर्म कसौटी है । जो दुःख से दुर्गति से, ओर पतन से बचाकर आत्मा को ऊँचा उठाता है— आत्मा के मूल स्वरूप पर पहुँचता है वही धर्म है । जिन महान विजेता आत्माओं ने अपने अन्तरंग शत्रुओं को जीतकर, शुद्ध अवस्था प्राप्त करली है. उन जिनदेवों के द्वारा प्ररुपित अनुभवमय मागें ही आत्मशुद्धि का वास्तविक मार्ग है । अतः सम्यग्दृष्टा आत्मा जिनधर्म - वीतराग धर्म का का अनुयायी होता है । वह त्याग, अहिंसा और संयम-मय धर्म को ही सत्य और सनातन धर्म मानता है । सच्चा सम्यादर्शी आत्मा किसी तरह का दुराग्रह नहीं रखता । वह जहाँ अहिंसा, सत्य, संयम और त्याग देखता है उसे अपनाने की कोशिश करता है । वह किसी पंथ, मजहब, सम्प्रदाय और सतके बंधन में बंधा नहीं रहता । उसे मत मजहव का पक्षपात नहीं होता । उसे सत्य का पक्षपात होता है । जहाँ सत्य और अहिंसा है वहाँ धर्म है । जहाँ सत्य और अहिंसा नहीं है, वहाँ धर्म नहीं है । इस प्रकार देव गुरु और धर्म का निर्णय करना व्यावहारिक सम्यग्दर्शन है ।
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सम्यग्दर्शन के द्वारा आत्मा स्वरूप की प्रतीति हो जाने के पश्चात् उस मूल स्वरूप को प्राप्त करने के लिये सम्यक चरित्र की आवश्यकता होती है । दीवार पर सुन्दर चित्र अंकित करने के लिये उसमें रही हुई विषमताको दूर करना आवश्यक होता है । इसलिए पहले दीवार को घिस घिस कर स्वच्छ और सम बनाया जाता है । इसी तरह आत्मा रूपी दीवार पर चरित्र का चित्र अङ्कित करने के लिए उसमें रही हुई मिथ्यात्व की विषमता को दूर करने की आवश्यकता होती हैं । मिथ्यात्व मेल के दूर होजाने के बाद आत्मा रूपी पृष्ट पर चारित्र का चित्रण सुचारु रूप से होता है । अतः जैनधर्म प्रथम सम्यक् दर्शन पर जोर देता है और उसके बाद सम्यक् चरित्र पर |
सभ्यक् चारित्र के द्वारा जीव अनादिकालीन राग द्वेष- अज्ञान आदि के बन्धन को तोड़ कर अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर सकता हैं । इस सम्यक् चारित्र की साधना के लिए व्रत, नियम, ध्यानं, तप आदि
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