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अपनी बात
चुका हूं, अनेक लेखकों द्वारा एक व्यक्तित्व के सम्बन्ध में लिखे जाने पर घटनाओं की पुनरावृत्ति, पुनर्लेखन होना सहज सम्भव है, वैसा हुआ है, किन्तु हर लेखक का सोचने-समझने एवं प्रस्तुत करने का अपना तरीका है, उसे सर्वथा नकारना या पुनरावृत्ति मात्र को दोष कोटि में रख देना उन अनेक लेखकों के साथ न्याय नहीं होगा। इस दृष्टि से इस विभाग में घटनाओं, संस्मरणों के उल्लेख ज्यों के त्यों रख दिये हैं। इस विभाग में श्री जैन दिवाकरजी महाराज के व्यापक व्यक्तित्व के विभिन्न रंग पाठकों के समक्ष उजागर होंगे।
छठा विभाग में श्री जैन दिवाकरजी महाराज की इतिहास-प्रसिद्ध अपूर्व प्रवचन-कला के सम्बन्ध में यत्किचित विवेचन तथा कुछ प्रवचनांश पर लिए गये हैं ताकि पाठक उस मनोहर मोदक का आस्वाद पा सकें । यह सच है कि प्रवचनकार के श्रीमुख से सुने प्रवचन में और पुस्तकों में पढ़े हुए में अन्तर होता है। हाथी दांत जब तक हाथी के मुंह में रहता है तब तक उसकी शोभा व शक्ति कुछ अलग होती है, वह दीवार तोड़ सकता है किन्तु हाथी के मुख में से निकलने पर वह शक्ति नहीं रहती। फिर भी हाथी दाँत हाथीदांत ही रहता है। ऐसे ही प्रवचन प्रवचन ही रहता है।
इसी प्रकार सप्तम विभाग में सरल सहज भाषा में रचे हए स्व. गुरुदेवश्री के प्रिय भजन व पद दिये गये हैं जोकि आज भी सैकड़ों भक्तों को याद हैं, वे प्रातः सायं श्रद्धा और भावना पूर्वक उन्हें गुनगुनाते हैं।
अष्टम विभाग में कुछ विशिष्ट विद्वानों के धर्म, दर्शन, संस्कृति तथा इतिहास से सम्बन्धित लेख हैं जिनका जैन-दृष्टि से सीधा सम्बन्ध जुड़ता है।
इस प्रकार अष्ट पंखुड़ी कमल-दल की भाँति परम श्रद्धय गुरुदेव का यह स्मतिग्रन्थ अष्ट विभाग में सम्पन्न हुआ है। इसका समस्त श्रेय हमारे सहयोगी सम्पादकों, लेखकों, उदार सहयोगी सज्जनों को है जिनकी निष्ठा, विद्वत्ता, भक्ति और भावना इस ग्रन्थ के पृष्ठ-पृष्ठ पर अंकित है। मैं तो सिर्फ एक निमित्त मात्र हैं। मेरे प्रयत्न से एक शुभकार्य हो सका, इसी का मुझे आत्मतोष है।
केवल मुनि
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