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राजव्यवस्था, पर्यावरण आदि व्यवस्थाओं में सहयोगी रूप से अपने को केन्द्रित कर भारतभूमि पर अनवरत प्रवहमान है। इसी क्रम में श्रमणी संघ अजस्रवाहिनी गंगा की धारा के समान धर्म की मर्यादाओं पर खरा उतरता हुआ प्रारम्भ से अब तक अपने में एक अक्षुण्ण भारतीय संस्कृति को संजोये हुए है। ऐसे गौरवशाली श्रमणी संघ का इतिहास उनके सृजनात्मक कार्य का लेखा-जोखा जन सामान्य की जानकारी में आना ही चाहिए।
जैनधर्म की तपोमूर्ति साध्वियों का एकत्रित नामोल्लेख आज तक एक स्थान पर नहीं मिल रहा था। प्रस्तुत शोध कार्य के द्वारा यह लोगों के अध्ययनार्थ प्रस्तुत हो रहा है। यह हर्ष का विषय है। इस शोध में मूल स्रोतों को सामग्री चयन का आधार बनाया गया है । यथा - आगम साहित्य, नियुक्तियाँ, भाष्य व चूर्णियाँ, व्याख्या साहित्य, प्रभावक-चरित्र, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पउमचरियं आदि चरित्रग्रंथ, पुराण साहित्य, कथा साहित्य विविधगच्छों से सम्बन्धि त पट्टावलियाँ, प्रशस्ति ग्रंथ, हस्तलिखित ग्रंथ, जैन शिलालेख आदि ।
जैन धर्म की दिगम्बर परम्परा में श्रमणी - संघ का आदरास्पद स्थान है। श्रमणी - संघ वस्त्र धारण करता है। मुखवस्त्रिका का प्रयोग नहीं होता। श्रमणवत् कमण्डल एवं मयूरपंख के रजोहरण का श्रमणी अपनी चर्या में व्यवहार करती हैं। भट्टारिका, आर्यिका माताजी इनके आदरास्पद पद हैं। आहार, वस्त्र, पात्र आदि की चर्या से दिगम्बर परम्परा की सतियों की पहचान श्वेताम्बर परम्परा से अलग हो जाती है। कर्नाटक प्रान्त के श्रवणबेलागोला का चन्द्रगिरि पर्वत सं. 757 से 15वीं सदी तक अमरत्व साधिका संलेखनाव्रत अंगीकार करने वाली आत्मिक उत्कर्ष की साधिकाओं का साक्षी है। यहाँ आठवीं से ग्यारहवीं सदी तक कुरत्तिगल श्रमणी - संघ का स्वतंत्र नेतृत्व रहा और उन्होंने उच्च शिक्षण संस्थाओं का निर्माण कराकर जैन दर्शन के विद्वान तैयार किए।
श्वेताम्बर परम्परा का श्रमणी - संघ बहुत बड़ा रहा है। मूर्तिपूजक मन्दिरमार्गी, स्थानकवासी एवं तेरापंथी परम्पराओं के अन्तर्गत स्व-पर कल्याण के लिए विहार करने वाले श्रमणी - संघ ने एक धर्म ज्योति जलाने में सफलता हासिल की है। गणिनी, प्रवर्तिनी, महत्तरा की उपाधियाँ मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में, गुरुणी, साध्वी प्रमुखा, समणी नियोजिका उपाधियाँ
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