Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 6
________________ भगवान की स्तुति करते हुए उनके तीर्थ को जन्म-मरण रूप समुद्र में डूबते हुए प्राणियों के लिए तरण-पथ बताया है। तीर्थ के कर्ता तीर्थकर तीर्थकर तीर्थ के कर्ता होते हैं । वे धर्म-तीर्थ की पुनः स्थापना करते हैं। तीर्थकर केवल चतुर्थ काल में ही उत्पन्न होते हैं। यही काल उनकी उत्पत्ति के अनुकूल होता है। एक अवसर्पिणी या उत्सपिणा काल में नोकरी की संख्या २४ ही होतोइसरो कर न इससे अधिक । इसे हम प्रकृति का नियम कह सकते हैं। ये किसी अन्यात शक्ति के अवतार नहीं होते । जैन धर्म में संसार की उत्पत्ति, विनाश और संरक्षण करने वाली कोई यो अव्यक्त प्रविन नहीं मानी है, जो संसार का संचालन करती हो। बल्कि संसार में जो जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, पाकाय और काल नामक षड द्रव्य हैं, उनके अपने स्वभाव और कार्य-कारण भाव से संसार का उत्पाद, व्यय और धोव्य माना। प्राधनिक विज्ञान भी इस कार्य कारण भाव को स्वीकार करता है। तीर्थकर भी मनुध्य होते हैं, किन्न सामान्य माना से असाधारण होते हैं। उनमें वह असाधारणता तीर्थकर नाम कर्म के कारण होती है। तीर्थकर नाम का होता है। उस कर्म का बन्ध उस व्यक्ति को होता है, जिसने किसी तीर्थकर, केवली या शतकेवली के पास पल में किसी जन्म में ग्यारह अंगों का अध्ययन किया हो, दर्शन विशुद्धि मादि सोलह कारण भावनापों का निरन्तर चिन्तन किया हो तथा भावना की हो कि मैं संसार के दुखी प्राणियों का दुःख किस प्रकार दूर करूं। ऐसो मन भावना और प्राशय वाले व्यक्ति को तीर्थकर नाम कर्म का बन्ध होता है। तोथकर नामक कर्म प्रक्रति महान पण्य का फल होती है। इसलिये शास्त्रों में इस कर्म प्रकृति के लिये कहा गया है-'पुण्ण फला मरहन्ता'। इस पण्य फल वाली तीर्थकर प्रकृति का बन्ध करके वह व्यक्ति किसी जन्म में तीर्थकर बनता है। तीर्थकर केवल तिर कल में ही उत्पन्न होता है। कि तीर्थकर असाधारण पुण्य संचय करके उत्पन्न होते हैं, इसलिए असाधारण पण्य के फलस्वरूप उन्हें असाधारण सांसारिक लक्ष्मी प्राप्त होती है। उनके असाधारण पुण्य का ही यह फल है कि इन्द्रदेव, मनुष्य और तिथंच उनके चरणों के सेवक बन जाते हैं। उनके गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान पौर नित के अवसर पर इन्द्र और देव यहाँ आकर उनकी स्तुति करते हैं। और पांचों अवसरों पर, जिन्हें कल्याणका जाना मनाते हैं। वे अपनी भक्ति प्रदाशत करने के लिये उन के गर्भ में आने से हमारी काल अर्थात पन्द्रह मास तक रत्न वषों करते हैं। केवल ज्ञान होने पर उनके लिए समवसरण को तथा विभिन्न अवसरों पर अपनी भक्ति का प्रदर्शन देवी रीति से करते हैं जो मनुष्य लोक को विस्मयकारी अद्भुत प्रतीत होता है। विदेह क्षेत्र में भरत क्षेत्र से भिन्न प्राकृतिक नियम है। वहाँ चौबीस नहीं, बोस तीर्थकर होते और सदा बीस ही विद्यमान रहते हैं। उनके जो नाम समझे जाते हैं, उन्हीं नामो से तीथंकर के निर्वाण होने पर दसरा तीर्थकर उस स्थान की पूर्ति कर देता है। वहाँ पांच कल्याणकों का भी नियम नहीं है। वहाँ किसी तीर्थकर के पांच कल्याण होते हैं, किसी के कम। कम से कम दो कल्याणक अवश्य होते है केवल ज्ञान और निर्वाण कल्याणक । इस भरत क्षेत्र के २४ तीर्थंकरों में ५तीथंकरों ने विवाह नहीं किया था। वे आजन्म ब्रह्मचारी रहे। उनके नाम हैं-बासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महाबीर । दिगम्बर परम्परा में ऐसी ही मान्यता है। श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन पागम ग्रन्थों की मान्यता भी इसी प्रकार है, किन्तु 'कल्पसत्र' के काल से इससे भिन्न मान्यता का प्रचलन प्रारम्भ हो गया। उसके पश्चात्कालीन श्वेताम्बर प्राचार्यों ने भी उसी मान्यता का किया किन्त उनमें भी मत-विभिन्नता उपलब्ध होती है । वासुपूज्य, मल्लिनाथ और नेमिनाय अविवाहित रहे तथा महावीर ने विवाह किया, इस विषय में उन प्राचार्यों में ऐकमत्य पाया जाता है। किन्त पार्श्वनाथ के विवाह के सम्बन्ध में उनमें भी मतभेद है, यहाँ तक कि हेमचन्द्राचार्य ने त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र' में एक स्थान पर पाश्वनाथ को विवाहित लिखा है और दूसरे स्थान पर उन्हें अविवाहित घोषित किया है। लगता है,

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