________________
और श्री राधाकृष्णजी बजाज की आग्रहपूर्ण प्रेरणा की पूर्ति के अर्थ एक निदर्शन मात्र छोटा-सा प्रयास है। प्रभु से प्रार्थना है कि वह समय आये जब कि जैनधर्म के सभी सम्प्रदायों व उपसम्प्रदायों के आचार्य मिलकर बाबा के स्वप्न को साकार करें।
प्रस्तुत ग्रन्थ आगमगत एवं आचार्य-प्रणीत ४२९ गाथाओं व श्लोकों का एक संग्रह है, जिसमें संग्रहकर्ता ने कहीं भी अपने शब्दों का प्रयोग नहीं किया है। यदि विषय को विशद करने के लिए कहीं कोई शब्द- प्रयोग करना पड़ा है, तो वह कोष्ठक या टिप्पणी में दे दिया गया है। विषय व्याख्या की सिद्धि गाथाओं की क्रम-योजना द्वारा की गयी है। जनदर्शन के प्रायः सभी मौलिक अंग व विषय इसमें आ गये हैं।
संग्रह में आधी गाथाएँ श्वेताम्बर साहित्य से ली गयी हैं और आधी दिगम्बर साहित्य से। श्वेताम्बर गाथा के सन्दर्भ के सामने तुलनार्थ दिगम्बर गाथा का सन्दर्भ दिया गया है और दिगम्बर गाथा के सामने श्वेताम्बर गाथा का, ताकि पाठक इस बात का अनुमान लगा सके कि प्रायः सभी दार्शनिक व धार्मिक विषयों में दोनों सम्प्रदाय एकमत हैं। जो कुछ थोड़ा-बहुत व्यावहारिक मतभेद है, वह 'आम्नाय' नामक अन्तिम अधिकार में दे दिया गया है।
प्रयत्न किया गया है कि गाथाएँ प्राचीन ग्रन्थों से ली जाये और प्राकृत की ही हों, परन्तु विषय के प्रवाह को अटूट रखने के लिए कहींकहीं, जहाँ उपयुक्त गाथाएं उपलब्ध नहीं हो सकी हैं, वहाँ अर्वाचीन ग्रन्थों से कुछ संस्कृत के श्लोक भी ग्रहण कर लिये गये है।
भूमि का 'जन' नाम से भले ही इस दर्शन की आदि रही हो, परन्तु श्रमण संस्कृति के नाम से यह अक्षय व अनाद्यनन्त है। युग-युग में महापुरुष इस भमण्डल के विविध प्रदेशों में अवतार धारण करते आये हैं, और करते रहेंगे। भगवान् महावीर भी उनमें से एक थे। तीर्थ (भवसागर का तीर) प्रवर्तक होने के कारण ये सभी तीर्थंकर कहलाते हैं। देशकाल की आवश्यकतानुसार सभी प्रायः एक ही उपदेश देते हैं।
इतना विशेष है कि स्वयं पूर्णकाम होते हुए भी उनमें से कोई आज तक न तो पूर्ण का प्रतिपादन कर सका है और न कर सकेगा। देश तथा काल की आवश्यकता के अनुसार सभी अपने-अपने दृष्टिकोण से उसके किसी एक-आध अंग को ही प्रधान करके कहते आये हैं और कहते रहेंगे। यदि पूर्ण के सुन्दर दर्शन करने हैं तो सबका संग्रहीत सार समक्ष रखना होगा, जो न होगा हिन्दू, न मुसलमान, न वेदान्त न बौद्ध, न जैन। वह होगा 'सत्य'-केवल सत्य । _ 'जन' नाम से प्रसिद्ध इस दर्शन का तात्त्विक प्रतिपादन भी वास्तव में एक दृष्टिकोण ही है, पूर्ण नहीं। धर्म के नाम पर हिंसाप्रवृत्ति वाले उस युग में भगवान् महावीर ने समष्टितत्त्व की चर्चा में पड़ना अधिक उचित न समझा। इसीसे उनका यह दर्शन व्यष्टिगत सत्ताओं तक सीमित रहा । इसके अन्तर्गत उन्होंने छह जाति के सत्ताभूत द्रव्यों की स्थापना की--जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल । 'जीव' शब्द यहाँ केवल देहधारी प्राणी का नहीं बल्कि स्वसंवेद्य उस अन्तर्चेतना का वाचक है जो प्रत्येक देह में अवस्थित है। इसके अतिरिक्त जितना कुछ भी वाह्याभ्यन्तर प्रपंच दिखाई देता है, वह सब 'पुद्गल' कहलाता है। ये दो ही द्रव्य व्यवहार्य होने से प्रधान हैं, शेष इनकी वृत्ति के अदृष्ट हेतु मात्र हैं।
Jain Education International
For Private & Personal use only
www.jainelibrary.org