Book Title: Jain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 19
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-17 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-13 पूजा के द्रव्य क्या हों? आदिआदि। ये सब बातें धर्म का शरीर हो सकती हैं, क्योंकि ये शरीर से गहरे नहीं जाती हैं, किंतु निश्चय ही ये धर्म की आत्मा नहीं है। धर्म की आत्मा तो है-समाधि, शांति, निराकुलता। धर्म तो सहज और स्वाभाविक है। दुर्भाग्य यही है कि आज लोग धर्म के नाम पर बहुत कुछ कर रहे हैं परंतु अधर्म या विभावदशा को छोड़ नहीं रहे हैं। आज धर्म को ओढ़ा जा रहा है, इसीलिए आज का धर्म निरर्थक बन गया है। यह कार्य तो ठीक वैसा ही है जैसे किसी दुर्गंध को स्वच्छ सुगंधित आवरण से ढक दिया गया हो। यह बाह्य प्रतीति से सुंदर होती है किंतु वास्तविकता कुछ और ही होती है। यह तथाकथित धर्म ही धर्म के लिए सबसे बड़ा खतरा है, इसमें अधर्म को छिपाने के लिए धर्म किया जाता है। आज धर्म के नाम पर जो कुछ किया जा रहा है उसका कोई लाभ नहीं मिल रहा है। आज हमारी दशा ठीक वैसी ही है जैसे कोई रोगी दवा तो ले किंतु कुपत्य को छोड़े नहीं। धर्म के नाम पर आत्म-प्रवंचना एवं छलछद्म पनप रहा है, इसका मूल कारण है धर्म के सारतत्व के बारे में हमारा गहरा अज्ञाना हम धर्म के बारे में जानते हैं किंतु धर्म को नहीं जानते हैं। आज हमने आत्म-धर्म क्या है, हमारा निजगुण या स्वभाव क्या है, इसे समझा ही नहीं है और निष्प्राण कर्मकाण्डों और रीतिरिवाजों को ही धर्म मान बैठे हैं। आज हमारे धर्म चौके-चूल्हे में , मंदिरों-मस्जिदों और उपासना गृहों में सीमित हो गए हैं, जीवन से उनका कोई सम्पर्क नहीं है। इसीलिए वह जीवित धर्म नहीं, मुर्दा धर्म है। किसी शायर ने ठीक ही कहा ... मस्जिद तो बना दी पर भर में इमां की हरारत वालों ने। मन वही पुराना पापी रहा, बरसों में नमाजी न हो सका।। आज धर्म के नाम पर जो भी किया जाता है उसका सम्बंधपरलोक से जोड़ा जाता है। आज धर्म उधार सौदा बन गया है और इसीलिए आज धर्म से आस्था उठती जा रही है। किंतु याद रखिए वास्तविक धर्म उधार सौदा नहीं, नकद सौदा है। उसका फल तत्काल है। भगवान् बुद्ध से किसी

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