________________ जैन धर्म एवं दर्शन-119 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-115 मध्य माना जाता है। इसके पश्चात् प्राकृत भाषा के कथा-ग्रंथो में संघदासगणिकृत वसुदेबद्धहिण्डी (छठवींशती) का क्रम आता है। इसमें वसुदेव की देशभ्रमण की कथाएँ वर्णित हैं। इन दोनों ग्रंथों में अनेक आवान्तर-कथाएँ भी वर्णित हैं। इसके पश्चात् आचार्य हरिभद्र के कथाग्रंथों का क्रम आता है। इनमें धूर्ताख्यान और समराइच्चकहा प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार, भद्रेश्वरसूरि की कहावली भी प्राकृत-कथा-साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। ज्ञातव्य है कि जहाँ विमलसूरि का ‘पउमचरियं' पद्य में है, वहाँ संघदासगणिकृत वसुदेवहिण्डी और हरिभद्र का धूर्ताख्यान गद्य में है। नौवीं-दसमीं शती में रचित शीलांक ने 'चउप्पणमहापुरिसचरियं भी प्राकृतभाषा की एक महत्त्वपूर्ण रचना है। इसी क्रम में, वर्द्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि की लीलावईकहा भी प्राकृत भाषा में निबद्ध एक श्रेष्ठ रचना है। प्राकृत भाषा में निबद्ध अन्य चरित-काव्यों में 10वीं शती का सुरसुंदरीचरियं, गरूडवहों, सेतुबंध, कंसवहो, चन्द्रप्रभमहत्तरकृत सिरिविजयचंदकेवलीचरियं (सं. 1027), देवेन्द्रगणीकृत सुदंसणचरियं, कुम्माषुत्तचरियं, जंबूसामीचरियं, महावीरचरियं (12वीं शती पूवार्द्ध) गुणपालमुनिकृत गद्यपद्य युक्त जंबुचरिय, नेमीचन्द्रसूरि कृत रयणचूडचरियं, सिरिपासनाहचरियं, लक्ष्मणगणिकृत सुपासनाहचरियं (सभी लगभग 12वीं शती), इसी कालखण्ड में रामकथा- सम्बन्धी दो महत्त्वपूर्ण कृतियाँ भी सृजित हुई थीं, यथा- सियाचरियं, रामलखनचरियं। इससे कुछ परवर्तीकालखण्ड की महेन्द्रसूरि (सन् 1130) कृत नम्मयासुदंरी भी एक महत्त्वपूर्ण रचना है। इसी क्रम में 17 वीं शती में भुवनतुंगसूरि ने कुमारपालचरियं की रचना की। इससे ज्ञात होता है कि प्राकृत में काव्य लिखने की यह परम्परा चौथी-पांचवीं शती से लेकर 17वीं शती तक जीवित रही है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य हैं कि श्वेताम्बर-परम्परा में कालकम में महाराष्ट्रीप्राकृत में तीर्थकर-चरित्रों पर अनेक ग्रंथ लिखे गये यथाआदिनाहचरियं, सुमईनाहचरियं, वसुपुज्जचरियं, अनन्तनाहचरियं, संतिनाहचरिय, मुनिसुण्वयसामीचरियं, नेमिनाहचरियं, पासनाहचरियं, महावीरचरियं आदि / शौरसेनी-प्राकृत भाषा में चरित्रग्रंथों के लिखने की यह धारा दिगम्बर-परम्परा में निरंतर नहीं चली। दिगम्बर-परम्परा में