________________ जैन धर्म एवं दर्शन-143 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-139 अपवाद-मार्ग की साधना से है। उसके पश्चात्, लगभग आठवीं शताब्दी के आगमों की व्याख्या के रूप में संस्कृत टीकाओं का प्रचलन हुआ, इनमें दार्शनिक-प्रश्नों की गम्भीर चर्चा है, किन्तु इसकी विशेष चर्चा हम जैन-दार्शनिक-संस्कृत-साहित्य के अन्तर्गत ही करेंगे। यद्यपि, प्राचीनकाल में कुछ दार्शनिक ग्रन्थ भी प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं। इनमें मुख्य रूप से सन्मतितर्क का स्थान सर्वोपरि है। सन्मतितर्क मूलतः तो जैनों के अनेकान्तवाद की स्थापना करने वाला ग्रन्थ है, फिर भी इसमें अनेक दार्शनिक-प्रश्नों की चर्चा करके अनेकांत के माध्यम से उसमें समन्वय का प्रयत्न है। यह ग्रन्थ जहाँ एक ओर दार्शनिक एकान्तवादों की समीक्षा करता है, वही प्रसगोपेत अनेकांतवाद की स्थापना का प्रयत्न भी करता है। दार्शनिक-दृष्टि से इसमें सामान्य और विशेष की चर्चा ही प्रमुख रूप से हुई है और यह बताया गया है कि वस्तु-तत्त्व सामान्यविशेषात्मक होता है और इसी आधार पर वह एकान्त-रूप से सामान्य या विशेष पर बल देने वाली दार्शनिक-मान्यताओं की समीक्षा भी करता है। इसके अतिरिक्त, इसमें जैन-परम्परा के प्रचलित ज्ञान और दर्शन के पारस्परिक सम्बन्ध को सुलझाने का भी प्रयत्न किया गया है। .. यहाँ यह ज्ञातव्य है कि दिगम्बर-परम्परा में जहाँ प्राकृत भाषा में अनेक दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की, वहाँ श्वेताम्बर-परम्परा में दार्शनिक प्रश्नों की चर्चा हेतु संस्कृत भाषा को ही प्रमुखता दी है और इसका परिणाम यह हुआ की श्वेताम्बर और दिगम्बर–परम्पराओं में दार्शनिक-चर्चाओं को लेकर मुख्य रूप से संस्कृत भाषा में ही ग्रन्थ लिखे गये। आगे, हम जैनों के दार्शनिक-संस्कृत-साहित्य की चर्चा करेंगे। संस्कृत भाषा का जैन दार्शनिक साहित्य यद्यपि जैन-तत्त्वज्ञान से संबधित विषयों का प्रतिपादन आगमों में मिलता है, किन्तु सभी आगम प्राकृत भाषा में ही निबद्ध है। जैन-तत्त्वज्ञान से संबधि त प्रथम सूत्रग्रन्थ की रचना उमास्वाति (लगभग 2 री शती) ने संस्कृत भाषा में ही की थी। उमास्वाति के काल तक विविध दार्शनिक निकायों के सूत्रग्रन्थ अस्तित्व में आ चुके थे, जैसे-वैशेषिकसूत्र, सांख्यसूत्र, योगसूत्र, न्यायसूत्र आदि, अतः उमास्वाति के लिए यह आवश्यक था कि वे जैनधर्मदर्शन से