Book Title: Jain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 146
________________ जैनधर्म एवं दर्शन-144 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-140 संबधित विषयों को समाहित करते हुए सूत्र-शैली में संस्कृत भाषा में किसी ग्रन्थ की रचना करे। उमास्वाति के पश्चात् सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि ने भी जैन-दर्शन पर संस्कृत भाषा में ग्रन्थ लिखे। सिद्धसेन दिवाकर ने भारतीय-दार्शनिक–धाराओं की अवधारणाओं की समीक्षा को लेकर कुछ द्वात्रिशिंकाओ की रचना संस्कृत भाषा में की थी, जिनमें न्यायवतार जैन प्रमाण मीमांसा का प्रमुख ग्रन्थ है। इसी प्रकार, आचार्य समन्तभद्र ने भी आप्त-मीमांसा, युक्त्यानुशासन एवं स्वयम्भूस्तोत्र नामक ग्रन्थों की रचना संस्कृत भाषा में की। इन सभी की विषय-वस्तु दर्शन से सम्बन्धित रही है। इस प्रकार, ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी से जैन-दार्शनिक-साहित्य संस्कृत में लिखा जाने लगा था। उमास्वाति ने स्वयं ही तत्वार्थसूत्र के साथ-साथ उसका स्वोपज्ञ भाष्य भी संस्कृत में लिखा था। लगभग 5 वीं शताब्दी के अन्त और छठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में दिगम्बराचार्य पूज्यपाद देवनन्दि ने तत्वार्थसूत्र पर 'सर्वार्थसिद्धि' 'नामक टीका संस्कृत में लिखी। इसके अतिरिक्त, उन्होने जैनसाधना के सन्दर्भ में समाधितंत्र और 'इष्टोपदेश नामक ग्रन्थ भी संस्कृत भाषा में ही लिखे। इसी कालखण्ड में श्वेताम्बर-परम्परा में मल्लवादी ने द्वादशारनयचक्र की रचना संस्कृत भाषा में की, जिसमें प्रमुख रूप से सभी भारतीय–दार्शनिक–परम्पराएँ पूर्व पक्ष के रूप में प्रस्तुत की गई और उन्हीं में से उनकी विरोधी धारा को उत्तरपक्ष के रूप में प्रस्तुत कर उनकी समीक्षा भी की गई। इसके पश्चात्, 5 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य तो प्राकृत में लिखा, किन्तु उसकी स्वोपज्ञटीका संस्कृत में लिखी थी। उनके पश्चात्, 7 वीं शती के प्रारम्भ में कोट्टाचार्य ने भी विशेषावश्यकभाष्य पर संस्कृत भाषा में टीका लिखी थी, जो प्राचीन भारतीय-दार्शनिक-मान्यताओं का गम्भीर विवेचन प्रस्तुत करती है, साथ ही उनकी समीक्षा भी करती हैं। लगभग 7वीं शताब्दी में ही सिद्धसेन गणि ने श्वेताम्बर-परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र की टीका लिखी थी, इसी क्रम में सिंहशूरगणि ने द्वादशारनयचक्र पर संस्कृत भाषा में टीका लिखी थी। 8वीं शताब्दी में प्रसिद्ध जैनाचार्य हरिभद्रसूरि हुए, जिन्होंने प्राकृत और संस्कृत- दोनों ही भाषाओं में अपनी कलम चलाई। हरिभद्रसूरि ने जहाँ एक ओर अनेक जैनागमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखीं, वहीं उन्होंने अनेक

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