Book Title: Jain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 119
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-117 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-113 और वृहत्कल्पभाष्य आज मूल-प्राकृत और उसके हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित भी हैं- इस सम्बंध में समणी कुसुमप्रज्ञाजी का श्रम स्तुत्य है। यह स्पष्ट है कि भाष्य भी मूलतः प्राकृत भाषा में रचित हैं, साथ ही यह भी ज्ञातव्य है कि नियुक्ति और भाष्य- दोनों पद्यात्मक हैं, जबकि कालांतर में इन पर लिखी गई चूर्णियाँ प्राकृत-संस्कृत मिश्रित भाषा में गद्य में लिखी गई हैं, फिर भी चूर्णियों की भाषा पर प्राकृत का बाहुल्य है। भाष्यों का रचनाकाल 6-7 शती के लगभग है, यद्यपि कुछ भाष्य परवर्ती भी हैं। चूर्णियां 7 वीं - 8 वीं शती के मध्य लिखी गईं। चूर्णियों में निशीथचर्णि सबसे महत्त्वपूर्ण और विशाल है, यह अपने मूल स्वरूप में चार खण्डों में प्रकाशित है। इसके साथ ही, आवश्यकचूर्णि भी अति महत्त्वपूर्ण है, यह भी अपने विशाल आकार में मूल मात्र ही दो खण्डों में पूर्व में मुद्रित हुई थी, किन्तु वर्तमान में प्रायः अनुपलब्ध है। इनके अतिरिक्त, अन्य चूर्णियाँ निम्न हैं- आचारांगचूर्णि, उत्तराध्यबनचूर्णि, दशवैकालिकचूर्णि, सूत्रकृतांगचूर्णि, जीतकल्पचूर्णि, नन्दीचूर्णि आदि। इनमें से नन्दीचूर्णि भी प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी से प्रकाशित है। आज इन चूर्णियों के हिन्दी-अनुवाद की महती आवश्यकता हैं। - चूर्णियों के पश्चात् प्राकृत-आंगम-साहित्य पर टीकाएँ भी लिखी गई हैं। टीकाएँ प्रायः संस्कृत में हैं। टीकाकारों में हरिभद्र, शीलांक, अभयदेव, मलयगिरि आदि प्रसिद्ध हैं, किन्तु इन टीकाओं में शांतिसूरि की उत्तराध्ययन की पाइअ टीका (प्रायः नौवीं शती) अति प्राचीन एवं प्रसिद्ध है और जो मूलतः प्राकृत भाषा में ही निबद्ध है / यह लगभग सौ वर्ष पूर्व दो खण्डों में प्रकाशित है। टीकाओं में यही एक ऐसी टीका है, जो प्राकृत-भाषा में लिखित. है। प्राकृत के स्वतंत्रग्रंथ नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं के साथ ही पूर्व-मध्यकाल में प्राकृत-भाषा में अनेक आगमिक विषयों पर स्वतंत्र ग्रंथ भी लिखे गये। इनमें भी जीवसमास, लोकविभाग, पक्खीसूत्र, संग्रहणीसूत्र, क्षेत्रसमास, अंगपण्णत्ति, अंगविज्जा आदि प्रमुख हैं। इसी क्रम में ध्यान-साधना से सम्बन्धित जिनभद्रगणि का झाणाध्ययन अपरनाम ध्यानशतक (ईसा की

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