________________ जैन धर्म एवं दर्शन-79 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-75 श्वेताम्बर-परम्परा में हिन्दुओं की पंचोपचारी-पूजा से अष्टप्रकारी-पूजा और उसी से सत्रह-भेदी पूजा विकसित हुई। यह सर्वोपचारी या सत्रहभेदी पूजी वैष्णवों की षोडशोपचारी-पूजा का ही रूप है और बहुत-कुछ रूप में इसका उल्लेख ‘राजप्रश्नीय' में उपलब्ध है। इस समग्र चर्चा में हमें ऐसा लगता है कि जैन-परम्परा में सर्वप्रथम धार्मिक अनुष्ठान के रूप में षडावश्यकों का विकास हुआ। उन्हीं षडावश्यकों में स्तवन या गुण-स्तुति का स्थान था, उसी से आगे चलकर भावपूजा प्रचलित हुई और फिर द्रव्यपूजा की कल्पना सामने आई, किन्तु द्रव्यपूजा का विधान केवल श्रावकों के लिए हुआ। तत्पश्चात्, श्वेताम्बर और दिगम्बर-दोनों परम्पराओं में जिन-पूजा-सम्बन्धी जटिल विधि-विधानों का जो विस्तार हुआ, वह सब ब्राह्मण-परम्परा का प्रभाव था। आगे चलकर, जिन-मन्दिर के निर्माण एवं जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में हिन्दुओं का अनुसरण करके अनेक प्रकार के विधि-विधान बनें। पं. फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री ने 'ज्ञानपीठ पूजांजलि' की भूमिका में और डॉ. नेमिचन्दजी शास्त्री ने अपने एक लेख 'पुष्पकर्म-देवपूजाः विकास एवं विधि', जो उनकी पुस्तकं 'भारतीय-संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मय का अवदान' (प्रथम खण्ड), पृ. 371 पर प्रकाशित है, में इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि जैन-परम्परा में पूजा-द्रव्यों का क्रमशः विकास हुआ है। यद्यपि पुष्प-पूजा प्राचीनकाल से ही प्रचलित है, फिर भी यह जैन-परम्परा के आत्यन्तिक-अहिंसा-सिद्धान्त से मेल नहीं खाती है। एक ओर तो पूजा-विधान का पाठ, जिसमें होने वाली एकेन्द्रिय-जीवों की हिंसा का प्रायश्चित्त हो और दूसरी ओर पुष्प, जो स्वयं एकेन्द्रिय-जीव है, उन्हें जिन-प्रतिमा को समर्पित करना कहाँ तक संगतिपूर्ण हो सकता है। वह प्रायश्चित्त पाठ निम्नलिखित है ईयापथे प्रचलताम् मया प्रमादात्, एकेन्द्रियप्रमुखजीवनिकायबाधा। निवर्तिता यदि भवेव युगान्तरेक्षा, मिथ्या तदस्तु दुरितं गुरुभक्तितो मे।। स्मरणीय है कि श्वेताम्बर परम्परा में चैत्यवन्दन में भी 'इरियाविहिं