Book Title: Jain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 103
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-101 जैन धर्म एवं साहित्य का संक्षिप्त इतिहास-97 व्यक्ति के आध्यात्मिक-जागरण की अपेक्षा से जनसाधारण को जैन धर्म के आध्यात्मिक-प्रधान सारभूत तत्त्वों का बोध दिया। श्रीमद् राजचन्द्र आध्यात्मिक-प्रज्ञासम्पन्न आशु-कवि थे, अतः उनका अनुयायी कविपंथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कानजीस्वामी ने कुन्दकुन्द के 'समयसार' आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर बनारसीदास और श्रीमद् राजचन्द्र की अध्यात्म-प्रधान-दृष्टि को ही जन-जन में प्रसारित करने का प्रयत्न किया, किन्तु जहाँ श्रीमद राजचन्द्र ने निश्चय और व्यवहार-दोनों पर समान बल दिया, वहाँ कानजी स्वामी का दृष्टिकोण मूलतः निश्चयप्रधान रहा। दोनों की विचारधाराओं में यही मात्र मौलिक अन्तर माना जा सकता ह , व्यक्ति की आन्तरिक-विशुद्धि और आध्यात्मिक विकास दोनों का ही मूल ल य है। ऐसा कहा जाता है कि श्री एम.के. पटेल को सन् 1957 में ज्ञान का प्र श मिला और उन्होंने भी अपने उपदेशों के माध्यम से व्यक्ति के अ न्तरिक-विकारों की विशुद्धि पर ही विशेष बल दिया, फिर भी जहाँ कानजीस्वामी ने क्रमबद्ध पर्याय की बात कही वहाँ श्री एम.के. पटेल, जो आगे चलकर दा भगवान् के नाम से प्रसिद्ध हुए, ने अकम-विज्ञान की बात कही, अकम विज्ञान का मूल अर्थ केवल इतना ही है कि आध्यात्मिक-प्रकाश की यह टिना कभी घटित हो सकती है। आध्यात्मिक बोध कोई यांत्रिक घटना न है। वह प्राकृतिक नियमों से भी उपर है। दादा भगवान की परम्परा का वैशिष्ट्य यह है कि उन्होंने आध्यात्म के क्षेत्र में जैन एवं हिन्दू-परम्परा की समरूपता का अनुभव किया और इसी आधार पर जहाँ तीर्थकर परमात्मा की आराधना को लक्ष्य बनाया वहीं वासुदेव और शिव को भी अपने आराध्य के रूप में स्वीकार किया। इस प्रकार, उनकी परम्परा हिन्दू और जैन-अध्यात्म का एक मिश्रण है। 20 वीं शती में विकसित इन तीनों परम्पराओं का वैशिष्ट्य यह है कि वे विकास पर सर्वाधिक बल देती है। उनकी दृष्टि में आचार शुद्धि में पूर्व विचार-शुद्धि या दृष्टि शुद्धि आवश्यक है। इन नवीन पृथक्-भूत परम्पराओं के अतिरिक्त पूर्व-प्रचलित परम्पराओं में भी ऐतिहासिक महत्व की अनेक घटनाएँ घटित हुई। उनमें एक महत्वपूर्ण घटना यह है कि दिगम्बर परम्परा मे जो नग्न-मुनि-परम्परा शताब्दियों से नामशेष या विलुप्त हो चुकी थी, वह आचार्य शान्तिसागरजी

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