Book Title: Jain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 113
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-111 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-107 और तेरापंथ की परम्पराएँ मात्र 32 ही आगम मान्य करती हैं। श्वेताम्बरमूर्तिपूजक-परम्परा में भी दो मान्यताएँ हैं- (1) 45 आगमों की और (2) 84 आगमों की। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि 84 आगमों की सूची के अंतर्गत 32 और 45 आगमग्रंथ भी सम्मिलित हो जाते हैं। स्थानकवासी एवं तेरापंथी-परम्परा 11 अंग, 12 उपांग, 4 छेद, 4 मूल और 1 आवश्यक-ऐसे 32 आगम मान्य करती है। श्वेताम्बर-मूर्तिपूजक-परम्परा में भी 11 अंग, 12 उपांग के नाम समान हैं। स्थानकवासी-परम्परा द्वारा मान्य 4 मूल में (1) उत्तराध्ययन और (2) दशवैकासिक-दोनों नाम समान हैं। नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार को श्वेताम्बर–मूर्तिपूजक-परम्परा चुलिकासूत्र में रख देती हैं। 6 छेदसूत्रों में महानिशीथ और जीतकल्प- ये दो नाम अधिक हैं, चार नाम समान हैं मूल में नन्दी और अनुयोगद्वार के स्थान पर आवश्यक और पिण्डनियुक्ति- ये दो नाम आते हैं। 10 प्रकीर्ण स्थानकवासी और तेरापंथी-परम्परा को मान्य नहीं है। श्वेताम्बर-मूर्तिपूजक-परम्परा द्वारा मान्य 84 आगमों की सूची निम्न है, इसमें बत्तीस और पैंतालीस भी समाहित हैं। ____84 आगम (श्वेताम्बर सम्मत) 1-11 ग्यारह अंग - आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशांग, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिक, प्रश्नव्याकरण और विपाक।। 12-23 बारह उपांग - औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, कल्पिका, कल्पावंतसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा। अन्तिम पांचों का संयुक्त नाम निरयावलिका है। . 24-27 चार मूलसूत्र - आवश्यकसूत्र, दशवैकालिक, उत्तराध्ययनानि, पिंडनियुक्ति (अथवा ओधनिर्यक्ति)। 28-29 दो चूलिकासूत्र - नन्दीसूत्र, अनुयोगद्वार | 30-35 छ: छेदसूत्र - निशीथ, महानिशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, पंचकल्प (विच्छिन्न)। 36-45 दस प्रकीर्णक - चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा,

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