Book Title: Jain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 114
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-112 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-108 तन्दुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, देवेन्द्रस्तव, गणिविद्या, महाप्रत्याख्यान, वीरस्तव संस्तारक। (किसी के मत से 'वीरस्तव' और 'देवेन्द्रस्तव'- दोनों का समावेश एक में है और 'संस्तारक के स्थान पर 'मरणसमाधि' और 'गच्छाचारपयन्ना" है।) ___46 कल्पसूत्र (पर्युषण कल्प जिनचरित, स्थविरावलि, सामाचारी सहित) 47 यतिजीतकल्प (सोमप्रभसूरि) 48 श्राद्धजीतकल्प (धर्मघोषसूरि) 49 पाक्षिकसूत्र (आवश्यकसूत्र का अंग है) . 50 क्षमापनासूत्र (आवश्यकसूत्र का अंग है) 51 वंदित्तु (आवश्यकसूत्र का अंग है) 52 ऋषिभाषित 53-62 बीस अन्य पयन्ना - अजीवकल्प, गच्छाचार, मरणसमाधि, सिद्धप्राभृत, तीर्थोद्गारिक, आराधनापताका, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, ज्योतिषक्रण्डक, अंगविद्या, तिथिप्रकीर्णक, पिण्डविशुद्धि, सारावली, पर्यन्ताराधना, जीवविभक्ति, कवच प्रकरण, योनिप्राभूत, अंगचूलिया, वग्गचूलिया, वृद्धचतुःशरण, जम्बूपयन्ना। 63-83 ग्यारह नियुक्ति-(भद्राबाहुकृत) आवश्यकनियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति, उत्तराध्ययननियुक्ति, आचारांग-नियुक्ति, सूत्रकृतांगनियुक्ति, सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति (अनुपलब्ध), बृहत्कल्पनियुक्ति, व्यवहारनियुक्ति, दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति, ऋषिभाषितनियुक्ति, (अनुपलब्ध), संसक्तनियुक्ति। 84 विशेषावश्यकभाष्य / ये 84 आगम-ग्रन्थ आज भी उपलब्ध हैं। आगमों का रचना काल सामान्यतया, आगम-साहित्य में अंग-आगमों को गणधरकृत और अंगबाह्य ग्रंथों को आचार्यकृत माना जाता है, किन्तु बौद्धिक ईमानदारी से विचार करने पर उपलब्ध सभी अंग-आगम भी किन्हीं एक गणधर की या गणधरो के समूह की रचना हो- ऐसा नहीं माना जा सकता है।

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