Book Title: Jain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 110
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-108 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-104 6. ज्ञाताधर्मकथा, 7. उपासकदशा, 8. अन्तकृत्दशा, 9. अनुत्तरौपपातिकदशा, 10. प्रश्नव्याकरण, 11. विपाकसूत्र और 12. दृष्टिवाद / दोनो परम्पराएँ इस संबंध में भी एकमत हैं कि वर्तमान में दृष्टिवाद अनुपलब्ध है, यद्यपि दिगम्बर-परम्परा यह स्वीकार करती है कि उसके जो आगमतुल्य ग्रंथ हैं, वे इसी आधार पर निर्मित हुए हैं। अंगबाह्यों के सम्बंध में दोनों परम्पराओं में आंशिक एकरूपता और आंशिक-मतभेद देखा जाता है। दिगम्बरपरम्परा अंगबाह्य की संख्या 14 मानती है, जबकि श्वेताम्बर-परम्परा ऐसा कोई स्पष्ट निर्देश नहीं करती है। तत्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर मान्य स्वोपज्ञ-भाष्य में अंगबाह्य को अनेक प्रकार का कहा गया है। दिगम्बर-परम्परा की तत्वार्थ की टीकाओं और धवला में 14 अंगबाह्यों के नामों के जो निर्देश उपलब्ध है, उनमें उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, व्यवहार, कल्पिकाकल्पिक, महाकल्पिक, पुण्डरीक, महापुंडरीक, निशीथ आदि हैं। ज्ञातव्य है कि धवला में अंगबायों के जो 14 नाम गिनाये हैं, उनमें कल्प और व्यवहार भी है। धवला में कप्पाकप्पीय, महाकप्पीय, पुण्डरीक और महापुण्डरिक - ये चार नाम तत्वार्थभाष्य की अपेक्षा अधिक हैं और उसमें भाष्य में उल्लेखित दशा और ऋषिभाषित को छोड़ दिया गया है, साथ ही, इन नामों में से पुण्डरीक और महापुण्डरीक को छोड़कर शेष सभी ग्रंथ श्वेताम्बर-परम्परा में भी मान्य हैं। कल्पाकल्पिक़ का उल्लेख नन्दीसूत्र में है, किन्तु अब यह ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। शेष सभी ग्रंथ श्वेताम्बर-परम्परा में आज भी उपलब्ध माने जाते हैं। श्वेताम्बर-परम्परा में सूत्रकृतांग में पुण्डरीक नामक एक अध्ययन भी है। जहाँ तक आगम-साहित्य के वर्गीकरण का प्रश्न है, श्वेताम्बर-परम्परा में दो प्रकार के वर्गीकरण उपलब्ध होते हैं- 1. नन्दीसूत्र का प्राचीन वर्गीकरण और 2. जिनप्रभ की 'विधिमार्ग प्रपा' का आधुनिक वर्गीकरण / नन्दीसूत्र का प्राचीन वर्गीकरण लगभग ईसा की पाँचवीं शताब्दी का है, जबकि आधुनिक वर्गीकरण प्रायः ईसा की 13वीं-14वीं शती से प्रचलन में है। नन्दीसूत्र के प्राचीन वर्गीकरण में आगमों को सर्वप्रथम अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य- ऐसे पूर्व में प्रचलित दो विभागों में ही बाँटा गया है, किन्तु इसकी विशेषता यह है कि वह अंगबाह्य-ग्रन्थों के प्रथमतः दो विभाग

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