Book Title: Jain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 97
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-95 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-91 वर्चस्व बढ़ रहा था। धर्म के नाम पर केवल ऐहिक हितों की सिद्धि के ही प्रयत्न हो रहे थे। दूसरी ओर इस्लाम के देश में सुस्थापित होने के परिणामस्वरूप एक आडम्बर विहीन सरल और सहज धर्म का परिचय जनसाधारण को प्राप्त हुआ। तीसरी ओर मन्दिर और मूर्ति जिस पर उस समय का धर्म अधिष्ठित था, मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा ध्वस्त किये जा रहे थे। ऐसी स्थिति में जनसाधारण को एक अध्यात्मपूर्ण, तप ओर त्यागमय, सरल, स्वाभाविक, आडम्बर और कर्मकाण्ड विहीन धर्म की अपेक्षा थी, जो मुस्लिम आक्रान्ताओं के द्वारा ध्वस्त उसके श्रद्धा-केन्द्रों से उद्वेलित उसकी आत्मा को सम्यक आधार दे सके। अमूर्तिपूजक परम्पराओं का उद्भ विक्रम की प्रथम सहस्राब्दी पूर्ण होते-होते इस देश पर मुस्लिमआक्रमण प्रारम्भ हो चुका था। उस समय मुस्लिम आक्रान्ताओं का लक्ष्य मात्र भारत से धन-सम्पदा को लूटकर ले जाना था, किन्तु धीरे-धीरे भारत की सम्पदा और उसकी उर्वर भूमि उनके आकर्षण का केन्द्र बनी और उन्होंने अपनी सत्ता को यहाँ स्थापित करने का प्रयत्न किया। सत्ता की स्थापना के साथ ही इस्लाम ने भी इस देश की मिट्टी पर अपने पैर जमाने प्रारम्भ कर दिये थे, यद्यपि मुस्लिम शासक भी एक-दूसरे को उखाड़ने में लगे हुए थे। एक ओर, हुमायूँ और शेरशाह सूरि का संघर्ष चल रहा था, तो दूसरी ओर, दिल्ली में मुस्लिम शासकों के वर्चस्व के कारण इस्लाम अपने पैर इस धरती पर जमा रहा था। मुस्लिम शासकों का लक्ष्य भी सत्ता ओर सम्पत्ति के साथ-साथ अपने धर्म की स्थापना बन गया था, क्योंकि वे जानते थे कि उनकी सल्तनत तभी कायम रह सकती है, जब इस देश में इस्लाम की सत्ता स्थापित हो, अतः मुस्लिम-शासकों ने इस देश में इस्लाम को फैलाने और अपने पैर जमाने के लिए पर्याप्त सुविधाएँ प्रदान की। इस्लाम की स्थापना और उसके पैर जमने के साथ ही उसका सम्पर्क अन्य भारतीय-परम्पराओं से हुआ / भारतीय चिन्तकों ने इस्लाम के सांस्कृतिक और धार्मिक-पक्ष पर ध्यान देना प्रारम्भ किया। फलतः, भारतीय जनमानस ने यह पाया कि इस्लाम कर्मकाण्ड से मुक्त एक सरल

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